मुद्रा आधुनिक समय में किए गए मनुष्य द्वारा तीन प्रमुख आविष्कारों मुद्रा, पहिया और वोट में से एक है वास्तविकता तो यह है कि मुद्रा के बिना आधुनिक अर्थव्यवस्था की कल्पना ही नहीं की जा सकती यह आर्थिक व्यवहारों को सुचारु रूप से संपादित करने में सहायक होती है । सवाल यह उठता है की मुद्रा क्या है, इसके क्या कार्य हैं, मुद्रा का अर्थ एवं प्रकार क्या है, इसमें हम क्या-क्या सम्मिलित करते हैं या इसकी पूर्ति की अवधारणा क्या है तथा इसकी मांग क्यों की जाती है? यहां इसे संक्षेप में यह स्पष्ट रूप में इनमें संबंधित विभिन्न धारणाओं से आपको परिचित कराएँगे क्योंकि इस अस्पष्ट अवधारणा के प्रभाव में आप Reserve Bank of India की मौद्रिक नीति मूल्य स्तर Banking कार्यप्रणाली आदि से संबंधित विषयों से परिचित नहीं हो पाएंगे ।
मुद्रा अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Money’ का हिंदी रूपांतरण है। Money तो लैटिन भाषा के ‘Moneta’ शब्द से लिया गया है। मोनेटा रोम की देवी जूनो का प्रारंभिक नाम है। इस देवी को इटली के निवासी ‘स्वर्ग की रानी’ के नाम से जानते थे। इस देवी के मंदिर में ही सिक्के के ढलाई का कार्य किया जाता था, ऐसा कहा जाता था कि देवी जूनो के मंदिर में जो मुद्रा बनाई जाती थी, उसका नाम मोनेटा रखा गया तो बाद में मुद्रा (Money) के रूप में लोकप्रिय हुआ।
मुद्रा क्या है? What is Money in Hindi?
यदि कोई वस्तु विशेष मूल्य का निर्धारित करने में वस्तुओं तथा सेवाओं का आदान प्रदान करने में तथा अन्य मौद्रिक कार्यों में सामान्य रूप से प्रयोग की जाती है तो वह मुद्रा ही है चाहे इसकी वैधानिक भौतिक विशेषताएँ कुछ भी हो।
दूसरे शब्दों में, इसे कह सकते हैं कि यह पैसे या धन के उस रूप को कहते हैं जिससे दैनिक जीवन में क्रय और विक्रय होती है । इसमें सिक्के और कागज के नोट सम्मिलित होते हैं । आमतौर पर किसी देश में प्रयोग की जाने वाली मुद्रा उस देश की सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत बनाई जाती है । जैसे कि भारत में रुपया व पैसा मुद्रा है।
कोई वस्तु जो विनिमय (Exchange) करती हो, मुद्रा कहलाती है। |
मुद्रा की विशेषताएँ (Characteristics of Money)
मुद्रा की विभिन्न परिभाषाओं के अध्ययन से मुद्रा की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं:
1. सामान्य स्वीकृति
मुद्रा देश के सभी नागरिकों द्वारा बिना किसी आनाकानी के मूल्य के बदले में स्वीकार किया जाता है। दूसरे शब्दों में, देश की जनता लेन-देन कार्यों में विनिमय-माध्यम तथा मूल्य-मापक के रुप में स्वीकार करती है।
2. राज्य द्वारा निर्माण
मुद्रा का निर्माण राज्य या सरकार करती हैं। Paper Money के निर्माण में तो यह आवश्यक है कि इसके निर्माण का एकाधिकार सरकार को हो, वह किसी वस्तु को मुद्रा घोषित करे। कुछ देशों में इस कार्य का भार Central bank को सरकार द्वारा सौंप दिया जाता है।
3. मूल्य-संचय का साधन
मुद्रा के द्वारा क्रय-शक्ति को भविष्य के लिए संचित रखा जा सकता है और उसका व्यय भविष्य में आवश्यकतानुसार किया जा सकता है।
4. हास के तत्व का अभाव
मुद्रा में ह्रास होने का भय नहीं रहता। इसमें घिसावट तथा मूल्य-ह्रास की समस्या उत्पन्न नहीं होती। नोटों के फट जाने पर साधारण लागत पर इनका नवीकरण हो जाता है किंतु वह भी व्यय जनता को नहीं, सरकार को सहन करना पड़ता है।
5. नगण्य उत्पादन लागत
मुद्रा का उत्पादन-व्यय नहीं के बराबर रहता है। मुद्रा की माँग एवं महत्व की तुलना में इसकी कागज और छपाई पर बहुत कम व्यय होता है।
6. मुद्रा का विनिमय मूल्य होता है
मुद्रा की लागत मूल्य अथवा पूर्ति-मूल्य लगभग शून्य होने पर भी मुद्रा का Investment value बहुत अधिक होता है।
7. अपने आप में मुद्रा व्यर्थ होती है
यदि मुद्रा के कार्यों को मुद्रा से हटा दिया जाय तो उस मुद्रा का स्वयं कोई मूल्य नहीं होता। उदाहरण के लिये 100 रु0 के नोट का मूल्य विनियोग-संचय, इत्यादि के लिये होता है और इसके बदले में वस्तुएँ तथा सेवाएँ क्रय की जाती है। किंतु यदि सरकार उसे मुदा के रुप में स्वीकार न करे, बल्कि उसे रद्द कर दे, तो उस कागज के टुकड़े का कोई मूल्य नहीं होगा।
8. प्रतिस्थापन-लोच का अभाव
मुद्रा में प्रतिस्थापनीय लोच का अभाव होता है। चाहे मुद्रा की माँग बहुत अधिक भी हो जाय किंतु इसे किसी अन्य वस्तु से प्रति स्थापित नहीं किया जा सकता। यदि चावल का अत्यधिक मूल्य बढ़ जाय तो लोग गेहूं खा सकते हैं। किंतु मुद्रा की माँग बढ़ने पर भी मुद्रा का ही प्रयोग होता है।
क्या Cheque मुद्रा है?
Cheque मुद्रा नहीं है, किंतु Cheques के माध्यम से जिस Surplus Bank deposits का हस्तांतरण होता है, वह मुद्रा है, चाहे उसका रुप नगद जमा का हो या ऋण का या Overdraft का। इसका कारण यह है कि मुद्रा का जो अनिवार्य गुण (एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरणीय, सार्वभौम या व्यापक क्रय-शक्ति है) वह बैंकों के जमा-धन में है। वस्तुतः आजकल Banks का जमा-धन जिसमें से कोई व्यक्ति Cheque काटता है, मुद्रा की सबसे महत्वपूर्ण जाति है और मुद्रा की कुल पूर्ति का सबसे अधिक अंश इससे ही निर्मित होता है।
मुद्रा को क्रय-शक्ति माना है जबकि Cheque तथा Hundi को मुद्रा का केवल claims बताया है। दावा स्वयं क्रय शक्ति नहीं हो सकता-वह तो केवल क्रय शक्ति (मुद्रा) का प्रतीक है।
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मुद्रा के कार्य क्या है? What is Function of Money?
मुद्रा का कार्य केवल Exchange में सहायता करना ही नहीं है वरन् आधुनिक समाज में यह अनेक महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित करती है। मुद्रा के इन्हीं कार्यों के सम्पादित करने के कारण उसका आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान बन गया है। यह समाज का अभिन्न अंग है।
मुद्रा के कार्यों का निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है:
A. प्राथमिक कार्य (Primary function)
B. सहायक या गौण कार्य (Secondary function)
C. आकस्मिक कार्य (Contingent function)
(A) प्राथमिक कार्य (Primary Function)
मुद्रा का यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है। इन कार्यों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये मुद्रा द्वारा आर्थिक विकास की प्रत्येक अवस्था में सम्पन्न किये जाते हैं। इन कार्यों के अन्तर्गत निम्नलिखित दो कार्य आते हैं
1. विनिमय का माध्यम (Medium of exchange)
मुद्रा का महत्व इसीलिए है कि यह विनिमय के माध्यम का सर्वोत्तम साधन बन चुका है। मुद्रा के इस कार्य के फलस्वरूप वस्तुओं की अदला-बदली न कर भुगतान मुद्रा में की जाती है एवं फिर मुद्रा द्वारा अन्य वस्तुएँ खरीदी जाती है। वस्तु विनिमय-प्रथा के अन्तर्गत सबसे प्रमुख कठिनाई यह थी कि आवश्यकताओं की दोहरी अनुरुपता का अभाव पाया जाता था जिसके कारण विनिमय में बड़ी असुविधा होती थी।
मुद्रा ने Medium of exchange को कार्य अपनाकर वस्तु-विनिमय की अन्य कठिनाइयों पर भी विजय प्राप्त की है। मुद्रा प्रत्येक व्यक्ति को यह स्वतंत्रता प्रदान करता है कि वह अमुक समय, अमुक व्यक्ति से, अमुक मात्रा में अपनी इच्छानुसार वस्तुओं का क्रय करे। माध्यमिक वस्तु (Intermediate Commodity) के रुप में मुद्रा न सिर्फ उपभोक्ता को ही सहायता करती है वरन् वह उत्पादक के लिए भी सहायक सिद्ध होती है और उसे इस बात का अवसर प्रदान करती है कि वह अपने साधनों से अधिकतम संतोष प्राप्त कर सके।
2.विनिमय-शक्ति या मूल्य का माप (Standard of price)
मुद्रा का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य यह है कि यह सभी वस्तुओं के मूल्यों के मापक की शक्ति रखती है। मुद्रा का यह कार्य प्रथम कार्य का ही स्वाभाविक अंग है। मुद्रा द्वारा आर्थिक मूल्यों की माप उसी प्रकार की जाती है जिस प्रकार गज, फीट, इंच का प्रयोग दूरी मापने, मन-सेर छटॉक का प्रयोग वजन मापने में किया जाता है। मुद्रा कार्य द्वारा प्रत्येक वस्तु का मूल्य मुद्रा में निश्चित किया जाता है। इसलिये मुद्रा सापेक्षित मूल्यों का सामान्य मापक बन जाती है।
प्रत्येक बेची व खरीदी जानेवाली वस्तु का मूल्य मुद्रा में आंका जाता है और मुद्रा में आंका गया वस्तु का मूल्य उस वस्तु की कीमत (Price) कहलाता है। इस प्रकार मुद्रा मूल्य का मापदंड है। यह एक ऐसा सामान्य माध्यम है जिसमें समस्त वस्तुओं की कीमत निश्चित की जाती है।
मूल्य मापक के रुप में मुद्रा मूल्य-सूचियाँ निर्माण करती है जिसके द्वारा मूल्यों की तुलना शीघ्रता एवं सरलता से की जाती है। जिस प्रकार एक गज एक निश्चित दूरी को सूचित करता है, जिस प्रकार एक पौंड एक निश्चित वजन को प्रदर्शित करता है उसी प्रकार मुद्रा की एक इकाई एक निश्चित मूल्य का संकेत करती है।
यहाँ एक बात का ख्याल रखना चाहिये कि अन्य मापक इकाईयों की भाँति मुद्रा माप का एक के इस माप नहीं है क्योंकि मुद्रा की इकाई का मूल्य समय-समय पर सामान्य मूल्य-स्तर में परिवर्तन के साथ-साथ परिवर्तित करना रहता है ना होने पर भी विनिमय की दृष्टि से वस्तुओं मूल्य मापने के लिये मुद्रा ही अधिक स्थिर मान है।
(B) सहायक कार्य (Secondary function)
मुद्रा के ये कार्य प्राथमिक कार्यों पर आधारित होने के कारण ही सहायक कार्य कहलाते हैं। मुद्रा के इन कार्यों में निम्नलिखित कार्य आते है । लेन-देन में मुद्रा न केवल मूल्य मापक का ही कार्य करती है वरन् यह भावी भुगतान के प्रमाण भी है ।
1.भावी भुगतान का प्रमाप (Standard of Deferred payment)
वर्तमान व्यापारिक का कार्य भी करती है। आजकल अधिकांश लेन-देन का भुगतान भविष्य में होता है। जब वस्तुओं का विक्रय साख के आधार पर किया जाता है या ऋण भविष्य में चुकाये जाने के लिये दिये जाते हैं तब धनी एवं ऋणी (Creditor and Debitor) दोनों के लिये उस वस्तु के मूल्य का अत्यधिक महत्व होता है जिसके द्वारा भविष्य में भुगतान किया जाता है। इन दशाओं में स्वाभाविक रुप से न तो धनी कम क्रय शक्ति लेना पसंद करेगा और न ही ऋणी अधिक क्रय-शक्ति देना पसंद करेगा।
इस उद्देश्य की पूर्ति उस समय सरलता से की जा सकती है जबकि लेन-देन मुद्रा के रुप में किये जायें, क्योंकि मुद्रा का मूल्य अन्य वस्तुओं के मूल्यों की तुलना में बहुत कम गतिशील होता है। इसी कारण मुद्रा भावी भुगतान के प्रमाप का कार्य करके ऋण लेने एवं देने वाले को न्यूनतम जोखिम प्रदान कर देती है एवं साख (Credit) क्रियाओं के विकास को प्रोत्साहित करती है।
2. मूल्य का संचय (Store of Value)
मुद्रा का एक और कार्य मूल्य का संचय करना है। मुद्रा मानव को इस योग्य बनाती है कि वह मूल्य का संग्रह कर सके एवं अपनी सम्पत्ति का एक भाग द्रव्यिक रुप में भविष्य के लिए बिना हानि की संभावना के रख सके। सोना एवं चाँदी ऐसी वस्तुएँ हैं जो अन्य वस्तुओं की तुलना में न्यूनतम नाशवान हैं। वस्तु विनिमय प्रथा के अन्तर्गत मानव को अपनी अतिरिक्त उपज को संग्रह करने की असुविधा थी।
उस समय मुद्रा का प्रचलन नहीं था तथा विभिन्न वस्तुओं को अल्पकाल तक ही संग्रहित किया जा सकता था क्योंकि ये वस्तुएँ साल दो साल में सड़ने गलने लगती थीं और उनका मूल्य शून्य हो जाता था। पर अब मुद्रा के प्रयोग के कारण मानव अपनी अतिरिक्त उपज एवं बचत को दीर्घकाल तक संग्रहित कर सकता है क्योंकि मुद्रा का मूल्य प्रायः स्थिर ही रहता है। अत: यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि विनिमय-शक्ति का संचय करने का सर्वश्रेष्ठ साधन मुद्रा है।
3. मुद्रा का हस्तांतरण (Transfer of Value)
मूल्य-संचय के साथ मुद्रा मूल्य के हस्तांतरण को भी अत्यंत सरल बना देती है। मुद्रा के प्रयोग के कारण कोई भी व्यक्ति एक स्थान में स्थित अपनी चल एवं अचल सम्पत्ति को मुद्रा में बदल कर दूसरे स्थान में उसी प्रकार की सम्पत्ति खरीद सकता है। जरा सोचिये यदि मुद्रा न होती तो किस प्रकार एक व्यक्ति अपनी अचल सम्पत्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाता। उस समय हस्तांतरण संभव ही नहीं हो सकता था, पर अब मुद्रा ने हस्तांतरण को इतना सरल बना दिया है कि किसी भी समय एवं किसी भी स्थान में मानव अपनी चल एवं अचल सम्पत्तियाँ ले जा सकता है।
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(C) आकस्मिक कार्य (Contingent functions)
प्राथमिक एवं सहायक कार्यों के अतिरिक्त भी आजकल मुद्रा कुछ अन्य कार्य करती है। इन कार्यों को आकस्मिक कार्य कहा जाता है।
ये कार्य निम्नलिखित हैं:-
1. वितरण का आधार (Basis of Distribution)
मुद्रा का प्रथम आकस्मिक कार्य यह है कि यह उद्योगों की Joint Products एवं National Dividend के वितरण का उचित आधार प्रस्तुत करती है। मुद्रा के प्रयोग से पूँजीवादी समाज में वितरण की कठिनाइयाँ किसी भी प्रकार कम नहीं हो पाती थी। मुद्रा समस्त वस्तुओं को एक सामान्य रुप में बदल देती है एवं इसके बाद वह व्यवसाय में प्रत्येक सहायक-पूँजी पति, श्रमिक, भू-स्वामी, संगठक, कच्ची वस्तु की आपूर्ति करनेवाला इत्यादि को उचित अंश लाभदायक रुप में प्रदान कर देती है।
2. साख का आधार (Basis of Credit)
मुद्रा का एक आकस्मिक कार्य है कि यह साख का आधार प्रस्तुत करती है। मुद्रा के कारण ही वर्तमान साख का ढांचा निर्मित हो सका है। Cash Reserves के आधार पर ही Bank credit का विस्तार एवं Bank Note Issued करते हैं। इन कोषों पर जनता को विश्वास होता है एवं जनता के विश्वास पर ही बैंक प्रथा की दृढ़ता निर्भर करती है। इसी विश्वास से देश की साख एवं मुद्रा निर्गमन-प्रणाली को बल प्राप्त होता है। इस प्रकार, मुद्रा साख के लिए उचित आधार प्रस्तुत करती है।
3. सीमांत उपयोगिता एवं उत्पादकताओं में सामंजस्य स्थापित करना (Equaliser of Marginal Utilities and Productivities)
मुद्रा की उत्पत्ति से उपभोक्ता एवं उत्पादक दोनों को ही बहुत लाभ पहुँचा है। मुद्रा के अभाव में एक उपभोक्ता के लिए यह असंभव होता है कि वह अपनी आय को उपभोग की विभिन्न मदों पर इस प्रकार बाँटे कि उनमें से प्रत्येक से समान सीमांत उपयोगिता प्राप्त करके उसे अधिकाधिक उपभोक्ता की बचत मिले और उसके संतोष में वृद्धि हो। जिस प्रकार एक उपभोक्ता मुद्रा के प्रयोग से अधिकतम संतोष प्राप्त करता है, उसी प्रकार एक उत्पादक भी मुद्रा के प्रयोग से अपने लाभ को अधिकतम करने में सफल हो जाता हैं क्योंकि मुद्रा की मदद से वह उत्पादन के विभिन्न साधनों से समसीमान्त उत्पादन प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। इस प्रकार मुद्रा द्वारा उपभोक्ता एवं उत्पादक क्रमश: अपनी उपयोगिताओं और उत्पादन में वृद्धि करने में सफल होते हैं।
4.पूँजी एवं धन को उत्पादन का गुण प्रदान करना (Giver of General Value to Capital and Wealth)
जब पूँजी को मुद्रा के रूप में रखा जाता है तो उसमें तरलता एवं गतिशीलता बहुत रहती है। फल यह होता है कि पूँजी को नवीन एवं लाभदायक उद्योगों में लगाकर अधिक पूँजी उत्पन्न की जा सकती है। इस प्रकार मुद्रा के प्रयोग से उत्पादन का विस्तार होता है और उसे अधिकतम सीमा तक विकसित किया जा सकता है। पूँजी को मुद्रा के कारण जो उत्पादन का गुण प्राप्त है वास्तव में वही वर्तमान आर्थिक उन्नति का सबसे महत्वपूर्ण कारण है।
मुद्रा के दोष क्या है? (Disadvantages of Money)
जहाँ एक ओर मानव को मुद्रा वरदान के रुप में प्राप्त है, वहीं दूसरी ओर वह दोषों से भी रिक्त नहीं है। मुद्रा की अपार शक्ति ने मनुष्य को अपना दास बना लिया है। मनुष्य अपनी स्वतंत्रता खो बैठा और मुद्रा के पीछे पागलों की भाँति दौड़ने लगा। अध्यात्मवाद समाप्त हो गया और उसका स्थान भौतिकवाद ने ले लिया। मुद्रा ही मनुष्य का ईश्वर एवं आराध्य हो गया। समाज का नैतिक स्तर गिरने लगा और अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं का प्रादुर्भाव हो गया। ये इतनी गंभीर समस्याएँ हैं कि इनका निराकरण आज भी संभव नहीं हो सका है।
मुद्रा के मुख्य दोष इस प्रकार हैं:
1. असमानता
मुद्रा ने समाज को दो वर्गो-धनी और निर्धन में विभक्त कर दिया है। निर्धन वर्ग धन के अभाव में सदैव हीन बना रहता है और धनी वर्ग धन के कारण धनवान होता जाता है। धनी वर्ग सदैव निर्धनो पर शासन तथा शोषण करता रहा है।
2. पूँजीवाद का जन्म एवं शोषण
मुद्रा ही वह शक्ति है जिसके द्वारा पूँजीपति श्रमिकों का शोषण करते हैं। वे अधिक-से-अधिक धन अपने लिए रखना चाहते हैं और धनहीन श्रमिकों को मुद्रा की शक्ति के आगे झुकना पड़ता है। इससे समाज में केवल कुछ थोड़े से व्यक्तियों के हाथों में ही आर्थिक सत्ता केन्द्रित हो जाती है और एकाधिकार की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है।
3. नैतिक पतन
मनुष्य मुद्रा का दास है। मुद्रा प्राप्त करने के लिए वह झूठ है, बेईमानी करता है और दूसरों के साथ अन्याय करता है। मनुष्य के नैतिक पतन का मुख्य बोलता कारण मुद्रा ही है। आज चोरबाजारी, घूसखोरी इत्यादि मुद्रा के कारण ही है। आज भारत में काले धन और तस्करी की समस्या भी नैतिक पतन का जीता-जागता उदाहरण है। रस्किन ने ठीक ही लिखा है
“मुद्रा वह राक्षस है जिसने मनुष्य की आत्मा पर अधिकार कर लिया है और अब किसी धर्म अथवा दर्शन में उसे बाहर निकलने की शक्ति नहीं है।’
4. युद्ध
युद्ध का मुख्य कारण मुद्रा ही है। प्रत्येक मनुष्य एवं राष्ट्र सदैव अधिकाधिक सम्पत्ति-वैभव चाहता है और यही भावना युद्ध को प्रोत्साहन देती है।
5. मुद्रा के मूल्य में अस्थिरता
मुद्रा-स्फीति एवं मुद्रा-संकुचन के कारण प्राय: मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन होते रहते हैं। इससे देश के वाणिज्य एवं व्यवसाय पर और समाज के विभिन्न वर्गो पर बुरा प्रभाव पड़ता है। वर्तमान समय में भारत में मुद्रा-प्रसार होने के कारण मूल्यों में निरंतर वृद्धि की समस्या है और मूल्य वृद्धि के प्रभावों से सामान्य जनता अत्यधिक पीड़ित है।
6. सामाजिक अशांति
मनुष्य मुद्रा के मोह में अँधा हो जाता है। चोरी, डकैती, हत्या इत्यादि घटनाओं का मुख्य कारण मुद्रा ही है। सामाजिक अंशाति का मूल कारण मुद्रा का मोह है। पूँजीपति एवं श्रमिक वर्ग में निरंतर संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। कभी हड़तालें होती है तो कभी तालाबन्दी। सारा समाज अंशात हो उठता है और शांति-स्थापना की समस्या सरकार के सम्मुख विकराल रुप धारण कर लेती है।
7. ऋणग्रस्तता में वृद्धि तथा अपव्यय की प्रवृत्ति
उधार लेन-देन की क्रियाओं को मुद्रा अत्यन्त सरल बना देती है जिससे लोगों में उधार लेने की आदत को प्रोत्साहन मिलता है। वही ऋणग्रस्तता एवं अपव्यय का कारण बन जाती है। कर्ज तो ऐसा मेहमान है जो एक बार आने के बाद जाने का नाम नहीं लेता है। केवल एक बार ऋण लिया नहीं कि उसके चक्कर में जीवन भर पड़े रहना पड़ता है।
इस दोषों पर दृष्टि पात करने से ज्ञात होता है कि ये दोष मुद्रा के नहीं है, वरन् मुद्रा के उपयोग के हैं। यह सत्य है कि मुद्रा आधुनिक युग का वरदान है, अभिशाप नहीं। आज के युग में द्रव्य बहुत महत्वपूर्ण है। किसी भी देश की आर्थिक उन्नति द्रव्य पर निर्भर है। मुद्रा ही जीवन है। अत: यदि कोई व्यक्ति धन को ही ईश्वर ,मानकर उसके लोभ एवं मोह में ग्रस्त होकर अनैतिक कार्य करने लगे तो इसमें मुद्रा का क्या दोष है।
यदि कोई व्यक्ति किसी शस्त्र का उचित उपयोग नहीं जानता और उससे हानि उठाता है तो दोष शस्त्र का नहीं है। वास्तव में, मुद्रा का आविष्कार तो मनुष्य के सेवक के रूप में हुआ था और यदि हम एक दास की तरह इससे कार्य लें तो निश्चय ही यह मनुष्य के लिये एक अमूल्य निधि सिद्ध होगी। श्री वाल्टेयर का यह कथन सर्वथा उपयुक्त है-“भाग्यवान वह है जिसका धन गुलाम है, अभागा वह है जो धन का गुलाम है।”
मुद्रा के कितने प्रकार होते है? How many Types of Money?
अपने उदय काल से ही मुद्रा विभिन्न रूपों में प्रयुक्त होती आयी है। यदि हम मुद्रा के विकास के इतिहास का ध्यान पूर्वक अध्ययन करें तो हमें ज्ञात होगा कि प्रारम्भ में साधारण वस्तुएँ जैसे- खाल, हड्डियाँ इत्यादि मुद्रा के रुप में प्रयुक्त की जाती थी। एक प्रकार से यह मुद्रा Commodity money का प्रारंभिक समय था। इसके बाद वस्तु मुद्रा के न सिर्फ रुप में ही परिवर्तन हुआ वरन् इसने अपना स्थान Metallic money को दे दिया।
तदुपरात Metallic money का स्थान आज की Paper Money & Credit money ने ले लिया है। वर्तमान समय में संसार के भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार की मुद्राओं का चलन है। अत: हम यहाँ मुद्रा के वर्गीकरण का अध्ययन करने के हेतु मुद्रा के उन्हीं रुपों का वर्णन करेंगे जो विभिन्न विचारकों के मत-मतान्तरों द्वारा महत्वपूर्ण रुप में प्रमाणित किये गये हैं।
मुद्रा के प्रकार (मुद्रा का वर्गीकरण) निम्न रुप में है:
1. वास्तविक मुद्रा एवं लेखे की मुद्रा
2. पूर्ण एवं प्रतिनिधि मुद्रा
3. विधि-ग्राह्य मुद्रा एवं ऐच्छिक मुद्रा
4. धातु मुद्रा एवं पत्र-मुद्रा
इन रुपों पर विभिन्न मुद्राशास्त्रियों ने काफी विचार-विमर्श किया है एवं उन्होंने मुद्रा के अनेक रुपों (Sub forms) को जन्म दिया है, यथा-विधि-ग्राह्य मुद्रा को दो भागों में, सीमित विधि-ग्राह्य मुद्रा और असीमित विधि-ग्राह्य मुद्रा तथा प्रतिनिधि परिवर्तनशील एवं अपरिवर्तनशील मुद्रा के रुप विभक्त किया है जिसका वर्णन निम्नलिखित हैं
Actual money and money of Account
मुद्रा के वर्गीकरण का प्रारंभिक रुप वास्तविक मुद्रा एवं लेखे की मुद्रा माना जाता है। Actual money किसी देश की वह मुद्रा होती है जो वास्तविक रुप से वहाँ चलन में रहती है और जिसका प्रयोग वस्तुओं एवं सेवाओं के विनिमय-माध्यम के रुप में किया जाता है। वास्तविक मुद्रा द्वारा ही देश के अन्दर समस्त भुगतान किये जाते हैं एवं इसी के द्वारा General purchasing power का संचय किया जाता है।
उदाहरणार्थ, भारत में विभिन्न धातुओं के मिश्रण से बने एक रुपया, पच्चीस, पच्चीस, दस, पाँच, दो और एक पैसे के सिक्के तथा एक, दो, पाँच, दस एवं सौ रुपये के कागजी नोट भारत की वास्तविक मुद्राएँ हैं।
लार्ड कीन्स ने अपनी पुस्तक “मुद्रा पर निबन्ध’ (Treatise of money) में वास्तविक मुद्रा एवं लेखे की मुद्रा के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए मुद्रा का रुप प्रस्तुत किया है-“लेखे की मुद्रा से आशय उस मुद्रा से होता है जिसके द्वारा हिसाब-किताब (Account) रखा जाता है एवं जिसके द्वारा ऋण, मूल्य तथा सामान्य क्रय-शक्ति को स्पष्ट किया जाता है। कुछ समय पूर्व तक भारत में हिसाब-किताब रुपया, आना, पाई में रखा जाता था और अब रुपया एवं पैसों में रखा जाता है। इन्हीं के द्वारा समस्त लेन-देन, ऋण एवं मुद्रा की मात्रा को स्पष्ट किया जाता है। अत: भारत में यही लेखे की मुद्राएँ हैं।
वास्तविक मुद्रा एवं लेखे मुद्रा में अंतर
“लेखे की मुद्रा विवरण के अधिकार को सूचित करती रहती है एवं वास्तविक मुद्रा इस विवरण का प्रत्युत्तर है। (Money of account is the description or title and actual money means the thing which answers to this description.)। विवरण समान सकता है अर्थात् सैद्धांतिक रुप से मुद्रा समान इकाई की रह सकती है, पर वास्तविक मुद्रा, जो इस विवरण का प्रत्युत्तर है, बदली जा सकती है। उदाहरणार्थ सैद्धांतिक रुप से भारतीय रुपया अब तक 165 ग्रेन शुद्ध चाँदी का सूचक है जबकि आजकल इस विवरण का प्रत्युत्तर देने के लिए इस प्रकार की वास्तविक मुद्रा का पूर्णत: अभाव है।
वास्तविक मुद्रा एवं आदर्श मुद्रा (Actual money Ideal money) के रुप में वर्गीकृत किया है तथा इनको चलन इकाई एवं लेखा इकाई (Unit of currency & Unit of account) के नाम से भी जाना जाता है।
Commodity Money and Representative Money
मुद्रा के वर्गीकरण का यह रुप एक भिन्न रुप न होकर वास्तव में वास्तविक मुद्रा का उप विभाजित रुप है जिसके द्वारा वास्तविक मुद्रा को पूर्ण मुद्रा (Full-bodied money) एवं प्रतिनिधि मुद्रा में विभक्त कर दिया गया है। पूर्ण मुद्रा को वस्तु-मुद्रा (Commodity money) भी कहते हैं। पूर्ण मुद्रा का अर्थ उस मुद्रा से होता है जिसमें धातु का मूल्य एवं ढले हुए सिक्के का मूल्य भिन्न न होकर एक समान होता है।
दूसरे शब्दों में, पूर्ण मुद्रा का वास्तविक मूल्य (Intrinsic value) इसके Face value के बराबर या निकट बराबर (Near equal) होता है। इनको प्रामाणिक मुद्रा (Standard money) भी कहा जा सकता है क्योंकि मुद्रा के वास्तविक एवं अंकित मूल्य समान होते हैं। पूर्ण मुद्रा विनिमय माध्यम एवं मूल्य का संचय दोनों ही कार्य करती है। अमरीकी स्वर्ण प्रमाण-पत्र (American gold certificate) पूर्ण मुद्रा का सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
Fiat money क्या है?
प्रतिनिधि-व-मुद्रा को प्रतिनिधि इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसका महत्व उस मुद्रा के कारण होता है जिसका यह प्रतिनिधित्व करती है। प्रतिनिधि मुद्रा या तो सस्ती धातु की हो सकती है या कागज की। प्रतिनिधि मुद्रा के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसका स्वयं कुछ महत्व नहीं होता है परन्तु जिस मुख्य मुद्रा का यह प्रतिनिधित्व करती है उसके महत्व के कारण उसको भी महत्व मिल जाता है। प्रतिनिधि-मुद्रा मुख्य रुप से पत्र-मुद्रा के रुप में प्रचलित होती है। इसको प्रादिष्ट मुद्रा (Fiat money) भी कहते हैं जो कि अपने मूल्य के कारण मुद्रा न मानी जाकर Command के कारण मुद्रा मानी जाती है।
प्रादिष्ट मुद्रा का धात्विक या वास्तविक मूल्य (Intrinsic value) कुछ नहीं होता जबकि इसका अंकित मूल्य बहुत अधिक हो सकता है। इस प्रकार Central bank द्वारा निर्गमित छोटे एवं बड़े आकारों के करेन्सी नोट प्रतिनिधि एवं प्रादिष्ट मुद्रा के सर्वोत्तम उदाहरण हैं। सांकेतिक मुद्रा (Token money) के विचार से अध्ययन करने पर प्रादिष्ट मुद्रा सर्वोत्तम उदाहरण है। प्रादिष्ट मुद्रा को इस प्रकार वर्णित किया है, “प्रादिष्ट मुद्रा या प्रतिनिधि सांकेतिक” मुद्रा ऐसी मुद्रा है जिसका वास्तविक मूल्य अंकित मूल्य से भिन्न रहता है।
अब सिर्फ छोटे-छोटे आकारों (denominations) को छोड़कर इसका निर्माण कागज द्वारा किया जाता है। इनका जन्म एवं निर्गमन राज्य द्वारा किया जाता है पर वह स्वयं (itself) के अलावा किसी अन्य वस्तु क़ानूनन परिवर्तनशील नहीं होती है एवं इसके उद्देश्य गत प्रमाणन (Subjective standard) के सम्बन्ध में कोई निश्चित मूल्य नहीं होता है। प्रतिनिधि मुद्रा दो प्रकार की हो सकती है-परिवर्तनशील अर्थात् जिसे पूर्ण मुद्रा में सरलता से बदला जा सकता है एवं अपरिवर्तनशील जिसका परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
मुद्रा का वह रुप है जिसके अन्तर्गत प्रतिनिधि मुद्रा अर्थात् बैंक नोटों को बदला जा सकता है निश्चित मुद्रा (definite money) कहलाती है।
Legal Tender Money and Optional Money
मुद्रा की सामान्य स्वीकृति वाली विशेषता (General acceptability characteristics of money) पर जोर देनेवाले अर्थशास्त्रियों ने मुद्रा का वर्गीकरण विधि-ग्राह्य के रुप में एवं ऐच्छिक मुद्रा के रुप में किया है। विधि-ग्राह्य-मुद्रा वह मुद्रा होती है जिसके द्वारा कानूनानुसार भुगतान किया जा सके, जिसे ऋण के भुगतान तथा वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य में स्वीकार करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति बाध्य होता है। किसी देश की विधि ग्राह्य मुद्रा तो Unlimited legal tender या Limited legal tender हो सकती है।
Unlimited Legal tender money वह मुद्रा होती है जिसे ऋण इत्यादि भुगतान में किसी व्यक्ति को असीमित मात्रा में दिया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति इस मुद्रा को लेने से इनकार नहीं कर सकता। इसके विपरीत Limited Legal tender money वह मुद्रा होती है जिसके द्वारा एक सीमित मात्रा तक ही भुगतान किया जा सकता है। इस मात्रा का निर्धारण विधान द्वारा किया जाता है एवं किसी भी व्यक्ति को इस मात्रा से अधिक मुद्रा लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
उदाहरणार्थ के लिए, भारत में विभिन्न आकारों के नोट, धातु का रुपया एवं अठन्नी (अब पचास पैसे) असीमित विधि-ग्राह्य मुद्रा है एवं चार आना, दो आना, एक आना, आधा आना एवं पैसा (अब पच्चीस, दस, पाँच, दो एवं एक पैसा ) सिर्फ एक रुपये तक ही tender money है।
Optional money की सीमा के अन्तर्गत मौद्रिक चलन की यह विशाल मात्रा सम्मिलित रहती है जो विधि-वस्तु न होते हुए भी सामान्यतया ऋणों का भुगतान एवं वस्तुओं तथा सेवाओं के बदले स्वीकार की जाती है। इसको हम Credit money के नाम से पुकारते हैं।
Non Legal Tender or Optional Money
जैसे: Cheque, Bill of Exchange, Promissory note इत्यादि को स्वीकार करने के लिए कोई भी वैधानिक (Statutary obligation) नहीं होता है। इस प्रकार की मुद्रा स्वीकृति प्राप्त करने वाले व्यक्ति की इच्छा एवं देने वाले व्यक्ति की साख तथा ईमानदारी पर निर्भर करती है।
Metallic Money and Paper Money
धातु मुद्रा में सोना, चाँदी, ताँबे, पीतल एवं लोहा इत्यादि के सिक्के शामिल होते हैं एवं पत्र-मुद्रा के अन्तर्गत government या Banks द्वारा निर्गमित कागजी नोटों का चलन होता है। भारत में एक रुपया, पचास, पच्चीस, दस, पाँच, तीन दो, एक पैसे का सिक्का धातु-मुद्रा का उदाहरण हैं एवं एक, दो, पाँच, दस एवं सौ रुपये के कागजी नोट पत्र-मुद्रा के उदाहरण हैं।
इन नोटों में से एक रुपये के नोट का निर्गमन भारत सरकार द्वारा किया जाता है एवं चाँदी के रुपये के समान माना जाता है। शेष अन्य नोटों का निर्गमन Central bank द्वारा किया जाता है एवं ये नोट Bearer’s demand प्रत्येक Office of issue द्वारा payable होते हैं।
कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न (Frequently Asked Questions)
मुद्रा की पूर्ति कौन करता है?
उत्तर: मुद्रा की पूर्ति “Reserve Bank Of India” के द्वारा किया जाता है
व्यापक मुद्रा की माप क्या है?
उत्तर: M1, M2, M3 और M4 के द्वारा व्यापक मुद्रा को मापा जाता है
मुद्रा की पूर्ति के मुख्य निर्धारक तत्व क्या है?
उत्तर: अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति मुद्रास्फ़ीति की दर को निर्धारित करती है । पैसे की आपूर्ति अर्थव्यवस्था में जैसे-जैसे बढ़ती है उसी प्रकार मुद्रास्फीति भी बढ़ती जाती है । भारत में मुद्रा की आपूर्ति न्यूनतम आरक्षित प्रणाली (1957) के नियम के अनुसार की जाती है।
मुद्रा कितने प्रकार के होते है?
उत्तर: मुद्रा चार प्रकार के होते है – (a) Commodity Money (b) Fiat Money (c) Fiduciary Money (d) Commercial Bank Money
भारत में मुद्रा आपूर्ति किसके द्वारा नियंत्रित की जाती है?
उत्तर: भारतीय रिजर्व बैंक
भारत में कागजी नोट मुद्रा जारी करने का पूर्ण अधिकार किसके पास है?
उत्तर: भारतीय रिजर्व बैंक
₹1 के नोट कौन जारी करता है?
उत्तर: वित्त मंत्रालय
आज आपने क्या सीखा
दोस्तों मुझे आशा है कि आपको हमारा आर्टिकल मुद्रा क्या है, इसके क्या कार्य हैं, इसमें हम क्या-क्या सम्मिलित करते हैं या इसकी पूर्ति की अवधारणा क्या है तथा इसकी मांग क्यों की जाती है? के बारे में पूरी जानकारी मिल गई होगी इसके लिए आपको और कहीं जाने की जरूरत नहीं है|
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