अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष क्या हैं? (What is IMF in Hindi) यह नाम सुनते हैं हमारे दिमाग में सबसे पहले यह परिदृश्य बनता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पैसों का देखरेख करने वाली संस्था है परंतु इसके बारे में आज हम लोग इस आर्टिकल में विस्तार से जानेंगे कि आईएमएफ क्या है? इसके क्या कार्य हैं इसके उद्देश्य और इसके अंग के बारे में। तो बिना समय बर्बाद किए चलिए शुरू करते हैं।
IMF Full Form International Monetary Fund होता है। जिसका हिंदी अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष होता है। |
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष क्या हैं – IMF in Hindi
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ऐसा अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक संगठन (international monetary organization) है जिसकी स्थापना युद्ध के बाद संसार के विभिन्न देशों ने मिलकर की है ताकि विश्व के संतुलित विकास को प्रोत्साहित करते हुये एवं विभिन्न मुद्राओं की बहुपरिवर्तनीयता (Multi Covertability) को सम्भव बनाते हुए विश्व में आर्थिक स्थिरता (Economic Stability) स्थापित की जाय। कोष की स्थापना ब्रिटेन वुड्स (Britain Woods) समझौते के आधार पर की गई है। इसने अपने कार्य का आरम्भ 1947 से प्रारम्भ किया है।
IMF Headquarters | वाशिंगटन, डीसी, संयुक्त राज्य अमेरिका |
IMF की स्थापना वर्ष | July 1944, Bretton Woods, New Hampshire, United States |
IMF के सदस्य देश | 189 |
IMF President | क्रिस्टालिना जॉर्जीवा |
IMF की मुद्रा | SDR (Special Drawing Rights) |
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अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के उद्देश्य (Objectives of IMF in Hindi)
इसके उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
(a) मौद्रिक सहयोग में वृद्धि
विश्व के देशों के मध्य अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग को प्रोत्साहित करके बहुद्देश्यीय भुगतान प्रणाली की स्थापना करना है।
(b) व्यापार तथा रोजगार में वृद्धि
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को दृढ़ स्तर पर प्रोत्साहित करना, ताकि समस्त सदस्य देशों का व्यापार उन्नत होने से उनकी आय में वृद्धि हो तथा उनके यहाँ रोजगारी का उच्च स्तर (high level of employment) स्थापित किया जा सके।
(c) विनिमय स्थिरता को प्रोत्साहन
कोष का तीसरा उद्देश्य है विश्व में विनिमय स्थिरता को प्रोत्साहित करना। चूँकि विनिमय दर में होने वाले उतार-चढ़ाव विश्व व्यापार के मार्ग में बाधक होते हैं, अत: कोष का उद्देश्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सुदृढ़ विकास करने की दृष्टि से विनिमय स्थिरता स्थापित की जाय। इस पर किसी भी विनिमय स्थिरता (exchange stability) की नीति के सम्बन्ध में पूर्ण कठोरता का पालन नहीं किया जाता है एवं कोष द्वारा सदस्य देशों को इस बात की अनुमति प्राप्त है कि वह निश्चित सीमा तक नीति का पालन कर अपनी मुद्राओं के समता मूल्यों में परिवर्तन कर सकते हैं।
इस प्रकार विनिमय स्थिरता की दृष्टि से कोष ने कुछ तत्व स्वर्णमान तथा कुछ तत्व परिवर्तनीय विनिमय दर प्रणाली से लेकर उन्हें समझौते की स्थिति अर्थात विनिमय दरों की लोचपूर्ण स्थिरता से सम्बद्ध कर दिया है।
(d) भुगतान सन्तुलन में सहायता
सदस्य देशों में आवश्यकता पड़ने पर सुरक्षा के साथ अनुकूल मात्रा में short term fund प्रदान करना ताकि सदस्य देश national and international progress में बाधा पहुँचाए बिना ही अपने भुगतान कोषों की विपक्षता को दूर कर सकें।
(e) भुगतान विषमता दूर करना
सदस्य देशों की international payment balances की स्थायी विषमात की अवधि एवं मात्रा कम करने के लिए सदस्य देशों को कोष प्रदान करना। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए की कोष सदस्य देशों के भुगतान शेषों की स्थायी विषमता (Long time disequilibrium) दूर करने में सहायता नहीं करता है।
(f) विदेशी विनिमय बाधाओं तथा पूर्ण मुद्रा ह्रास को हतोत्साहित करना
मुद्रा कोष का अन्तिम उद्देश्य यह है कि यह सदस्य देशों की समस्त प्रकार की Foreign Exchange Restrictions एवं Complete depreciation of currency की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करता है। इस सम्बन्ध में कोष चार्टर की धारा 8 में यह स्पष्ट लिखा गया है कि कोई सदस्य देश बिना कोष की पूर्व स्वीकृति प्राप्त किये चालू अन्तर्राष्ट्रीय लेने-देन के हस्तांतरण तथा भुगतान के मध्य किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं लगावेगा। इसके साथ कोष ने सदस्य देशों को यह अनुमति दे दी है कि सदस्य देश अपने यहाँ से पूँजी की उड़ान (flight of capital) पर प्रतिबन्ध लगा सकता है। पर इस संबंध में भी शर्त है कि इस प्रकार के प्रतिबन्ध के कारण चालू लेन-देन तथा क्रियाशील व्यापार से उत्पन्न पूँजी की चालकता में किसी प्रकार से बाधा न पड़े।
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्य (IMF Functions)
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा निम्न कार्य सम्पन्न किये जाते हैं:
(1) विनिमय दरें (Exchange Rates): मुद्रा-कोष की स्थापना होने पर सदस्य देशों से उनकी मुद्राओं का मूल्य सोने व अमेरीकी डालर में घोषित करने को कहा गया। स्वर्ण को सामान्य आधार स्वीकार किया गया और कोष द्वारा विभिन्न देशों के साथ समता दरें निर्धारित की गई। विनिमय दरें निर्धारित होने के बाद सन् 1971 तक कोई देश अपनी समता दर में निर्धारित दर की एक प्रतिशत की सीमा से कमी या वृद्धि नहीं होने देता था।
मुद्रा विनिमय दरों के संबंध में प्रतिबन्धित लोच (Managed flexibility) की नीति अपनाई गई। किसी भी सदस्य देश को उसकी प्रारम्भिक समता दर (par value) में कोई की बिना स्वीकृति के ही केवल उसे (कोष को) सूचित करते हुए, 10 प्रतिशत तक के परिवर्तन की अनुमति दी गई। इससे आगे 10 प्रतिशत से 30 प्रतिशत तक के परिवर्तन के लिये मुद्रा कोष से पूर्व स्वीकृति लेने की व्यवस्था का प्रावधान किया गया तथा यह व्यवस्था की गई कि 20 प्रतिशत से अधिक परिवर्तन की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के 2/3 सदस्यों की सहमति होनी चाहिए।
19 दिसम्बर 1971 के स्मिथ सोनियन समझौता (Smith Sonian Agreement) के अनुसार exchange rate की उच्चावचन सीमा में वृद्धि करके इसे 22 प्रतिशत कर दिया गया। स्मिथ सोनियन समझौता, जो कि dollar crisis के निवारण के संबंध में हुआ था, उसके मुख्य पहलू निम्न प्रकार थे:
(i) डॉलर का अवमूल्यन (Dollar Depreciation): स्वर्ण मूल्य 35 डालर प्रति औंस के स्थान पर 38 डॉलर प्रति औंस किया गया। अन्य शब्दों में, डॉलर का 7.9 प्रतिशत अवमूल्यन हो गया। (ii) विनिमय दर की उतराव-चढ़ाव सीमाः विदेशी मुद्राओं के मूल्य में 1 प्रतिशत की उच्चावचन सीमा को बढ़ाकर 2.65 प्रतिशत कर दिया गया।
(iii) विनिमय दरों में परिवर्तन (Changes in Exchange Rates): सदस्य देशों को अपनी मुद्रा की विनिमय दर स्वर्ण और डालर से नये सिरे से इच्छानुसार निश्चित करने की अनुमति दे दी गई फलत: कुछ मुद्राएँ अवमूल्यित तथा कुछ अधिमूल्यित हो गई।
(iv) अमेरीकी आयात पर अधिभार का अन्त (End of surcharge on US imports): अमेरीकी सरकार ने अपने आयातों पर जो 10 प्रतिशत अधिभार लगाया था उसे हटा लिया गया।
स्मिथ सोनियन समझौता (Smith Sonian Agreement) के बावजूद भी विनिमय दरों में स्थायित्व न हो सका। इन दशाओं में स्वतन्त्र दरों (Floating Rates) की नीति अपनायी गयी। विकासशील देशों द्वारा अपनी मुद्राओं को डॉलर, पौंड आदि के साथ संबंधित किया गया। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने जनवरी 1976 में स्वतन्त्र विनिमय दरों को ही स्वीकृति देने का निश्चय किया। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की अन्तरिम समिति के निर्णयानुसार सदस्य देशों द्वारा विनिमय दरों के संबंध में स्वतन्त्र नीति अपनाई जा सकती है।
परन्तु उनको सामान्य स्वभाव की स्वदेशी व विदेशी आर्थिक नीतियों (Indigenous and foreign economic policies) को मानना होगा। सदस्य देशों को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा दूसरे सदस्य राष्ट्रों के साथ उचित विनिमय व्यवस्था बनाये रखना चाहिये तथा विनिमय दर में स्थिरता को प्रोत्साहन देना चाहिए।
(2) तकनीकी सहायता (Technical Support): मुद्रा कोष सदस्य देशों को तकनीकी सहायता देने की व्यवस्था करता है। यह सहायता दो प्रकार से की जा सकती है-
(a) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष के अधिकारी सदस्य देशों को उनकी विशेष समस्याओं के संबंध में परामर्श देते हैं। इससे सदस्यों की उचित monetary, exchange, revenue, भुगतान संतुलन नीतियों के निर्माण में सहायता मिलती है।
(b) विशिष्ट ज्ञान रखने वाले उन विद्वानों की सेवाएँ प्राप्त की जाती हैं जो कोष के बाहर होते हैं। ये विद्वान सदस्य देशों में जाते हैं। कोष द्वारा 1975-76 में इस प्रकार के 134 विशेषज्ञ 45 सदस्य देशों में भेजे गये। तकनीकी सहायता के संबंध में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष ने दो विभाग स्थापित किए हैं:
(i) केन्द्रीय बैंक सेवा विभाग (Central Banking Service Department) तथा
(ii) कर संबंधी कार्य विभाग (Fiscal Affairs Department)।
केन्द्रीय सेवा विभाग की स्थापना 1962 में हुई तथा 1964-65 में इसका संगठन सुदृढ़ हुआ। कर विभाग की स्थापना 1954 में हुई।
(3) अल्पकालीन भुगतानावशेष के असन्तुलन को दूर करना: मुद्रा कोष द्वारा सदस्य देशों के अल्पकालीन भुगतान संतुलन में असाम्य को दूर करने तथा उसकी अवधि को कम करने का कार्य किया जाता है। इस संबंध में कोष द्वारा सदस्य देशों को विदेशी मुद्रा बेची जाती है। इसके अतिरिक्त आवश्यकता पड़ने पर विदेशी मुद्रा की बिक्री का वचन (Stand by Agreements) भी दिया जाता है। विदेशी मुद्रा के वचन का समय प्राय: एक वर्ष होता है। जिसे पारस्परिक समझौता के आधार पर बढ़ाया जा सकता है।
किसी सदस्य देश को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से एक वर्ष में अपनी मुद्रा के बदले अपने असभ्यंश के 25 प्रतिशत से अधिक विदेशी मुद्रा प्राप्त नहीं हो सकती। मुद्रा कोष द्वारा अस्थायी असाम्य को दूर करने हेतु ऋण दिया जाता है। ये ऋण 3 वर्ष से 5 वर्ष तक की अवधि के होते हैं। कोष के भूतपूर्व प्रबंधक निदेशक के शब्दों में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एक आग बुझाने वाले इंजन (Fire Brigade) की भाँति है जिसे केवल संकटकालीन दशा में ही प्रयोग करना चाहिए।
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा हाल में सदस्य देशों के लिए दो योजनाएँ चलाई गयी:
(i) क्षतिपूरक वित्त सम्बन्धी सहायता (Compensatory Financing Facility): इसके अनुसार वे देश जो प्रमुख रूप से प्राथमिक वस्तुओं को उत्पादित व निर्यात करते हैं, के लिए सामान्य से अधिक मात्रा में वित्त सम्बन्धी सहायता की व्यवस्था की जाती है।
(ii) तेल सुविधा योजना (Oil Facility Scheme): इस योजना के अन्तर्गत तेल भुगतान आयातकर्ता देशों को 1974 में ऋण दिए गए थे। तेल की कीमतों के बढ़ने से उसके संतुलन पर पड़नेवाले प्रतिकूल प्रभाव को दूर करने हेतु ऐसा किया गया। इस योजना के लिए धनराशि की व्यवस्था तेल निर्यातक तथा औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा की जाती है।
(4) दुर्लभ मुद्रा (Scarce Currency): किसी देश का भुगतान सन्तुलन उस देश के निरन्तर अनुकूल बने रहने पर उस देश की मुद्रा की माँग में वृद्धि हो जाती है। जब कोष के पास ऐसी मुद्रा की मात्रा कम हो जाती है तो वह उस मुद्रा को संबंधित देश से उधार ले सकता है। यदि संबंधित देश अपनी मुद्रा उधार नहीं देता तो कोष द्वारा स्वर्ण (वर्तमान में SDR) देकर उस देश से मुद्रा क्रय की जा सकती है। ऐसा होने पर भी यदि उस मुद्रा की माँग पूर्ण नहीं होती तो मुद्रा कोष द्वारा ऐसी मुद्रा को दुर्लभ मुद्रा घोषित कर दिया जाता है और उस मुद्रा का राशनिंग कर दिया जाता है।
(5) विनिमय नियन्त्रण के संबंध में सलाह (Advice on Exchange Control): मुद्रा कोष द्वारा विकासशील देशों को विनिमय नियन्त्रण के संबंध में परामर्श दिया जाता है। हालाँकि मुद्रा कोष विनिमय तथा विदेशी व्यापार से संबंधित प्रतिबन्धों के विरोध में है। परन्तु वह Transitional period में सदस्य देशों को इस प्रकार के प्रतिबन्धों को लगाने का अधिकार प्रदान करता है।
(6) अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ सम्पर्कः अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष विश्व में सभी अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से सम्पर्क बनाये रखता है। इसके प्रतिनिधि इन संगठनों की वार्षिक सभाओं में भाग लेते हैं। फलत: अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को विश्व के आर्थिक परिवर्तनों की जानकारी रहती है।
(7) प्रशिक्षण सम्बन्धित कार्यक्रमः मुद्रा कोष द्वारा सन् 1951 से सदस्य देशों के प्रतिनिधियों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है। प्रशिक्षण कार्यक्रमों के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय भुगतान, आर्थिक विकास, वित्त संबंधी व्यवस्था, समंक संग्रह व विश्लेषण से संबंधित प्रशिक्षण सम्मिलित है। यह प्रशिक्षण Central Banks तथा सरकार के वित्त विभाग के उच्च अधिकारियों के लिए होता है।
(8) मुद्रा कोष के प्रकाशन: मुद्रा कोष द्वारा सदस्य देशों में अपने प्रकाशनों के माध्यम से ज्ञान का प्रसार किया जाता है। इसके अनेक प्रकाशन हैं जैसे अन्तर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण (International Survey – fortnightly), अन्तर्राष्ट्रीय विकास समंक (International Development Data) (मासिक), भुगतान सन्तुलन वार्षिक, विनिमय नियन्त्रणों पर वार्षिक रिपोर्ट, व्यापार की दिशा (मासिक, वित्त एवं विकास त्रैमासिक) आदि।
ये प्रकाशन शिक्षकों, विद्यार्थियों, शोधकर्ताओं तथा सरकारी विभागों को महत्वपूर्ण सूचनाएँ उपलब्ध कराते हैं।
(9) सांख्यिकी सुधार संबंधी सेवाः मुद्रा-कोष सामान्य तथा वित्तीय समंकों के संकलन, विश्लेषण तथा प्रकाशन संबंधी सेवा प्रदान करता है। इस संबंध में एक सांख्यिकी ब्यूरो है। यह सदस्य देशों को केन्द्रीय बैंक Improvement in Bulletins Data, Currency and Banking, Interest Rate, Price, Foreign Trade, Balance of Payments, National Income, Production आदि से संबंधित समंकों (Data) के सुधार व प्रकाशन में सहायक होता है। ये समंक सदस्य देशों की आर्थिक तुलना और मौद्रिक तथा भुगतान से संबंधित समस्याओं के विश्लेषण में सहायता प्रदान करते हैं।
(10) ट्रस्ट कोष (Trust Fund): मुद्रा कोष द्वारा जनवरी 1976 में न्यास निधि (Trust Fund) के निर्माण का फैसला किया गया है। मुद्रा कोष चार वर्ष की समयावधि में 25 मि० औंस स्वर्ण बेचेगा। स्वर्ण की बिक्री से प्राप्त लाभ से न्यास निधि का निर्माण होगा। इसमें से विकासशील देशों को 1/2 प्रतिशत ब्याज की दर पर सहायता दी जाएगी। इस सहायता को देने के लिए 60 देशों की, जिनमें भारत भी सम्मिलित हैं, एक सूची बनायी गई है। इस निधि में से दिया गया ऋण दस छमाही किस्तों में चुकाना होगा।
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अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अंग
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष अंग निम्न प्रकार से है:
(1) प्रशासक मंडल (Board of Governors):
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की समूची शक्तियाँ प्रशासक मण्डल में है। प्रशासक मंडल मुद्रा-कोष की साधारण सभा के रूप में होता है। इसके द्वारा नीतियों का निर्धारण, अभ्यंश में परिवर्तन, नये सदस्यों का प्रवेश, निदेशकों के चुनाव आदि का कार्य सम्पन्न किया जाता है। प्रशासक मण्डल में प्रत्येक सदस्य देश द्वारा नियुक्त किया गया एक प्रशासक (गवर्नर) होता है। इसकी कार्यावधि 5 वर्ष होती है। सदस्य देश एक वैकल्पिक प्रशासक को भी नियुक्त करता है। प्रशासक मण्डल का वार्षिक अधिवेशन सितम्बर या अक्टूबर माह में होता है।
(2) कार्यकारी प्रबंध निदेशक मंडल (Board of Executive Directors):
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष के दैनिक कार्य संचालन हेतु एक कार्यकारी प्रबंध निदेशक मण्डल है। इसमें 24 सदस्य होते हैं। इसमें 5 सदस्य उन देशों के होते हैं, जिनके मुद्रा-कोष में सबसे अधिक अभ्यंश होते हैं। शेष सदस्यों का चुनाव क्षेत्रीय आधार के अनुसार होता है।
(3) प्रबंध संचालक (Managing Director):
मुद्रा-कोष का एक प्रबंध संचालक होता है। इसकी नियुक्ति कार्यकारी प्रबंध मण्डल करता है। यहाँ पर वह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रबंध संचालक की नियुक्त प्रबंध मण्डल में से नहीं होती। वह एक निष्पक्ष व्यक्ति होता है।
(4) अन्य कर्मचारी:
मुद्रा-कोष के अन्य अधिकारी भी होते हैं। इनको प्रबंध संचालक या अन्य अधिकारी नियुक्ति करते हैं। अप्रैल 1976 में 1363 कर्मचारी थे।
प्रधान कार्यालयः अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष के विधान के अनुसार कोष का प्रधान कार्यालय उस देश में होना चाहिए जिसका अभ्यंश सबसे अधिक होता है। अमेरिका का अभ्यंश सबसे अधिक होने के कारण कोष का प्रधान कार्यालय (Head Office) वाशिंगटन (अमेरिका) में स्थित है। 1996 में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष के सदस्यों की संख्या 181 है। वर्तमान में यह संख्या 189 है।
मुद्रा कोष के साधन: जब कोई देश मुद्रा-कोष की सदस्यता स्वीकार करता है तो उसके लिये अभ्यंश निर्धारित कर दिया जाता है। मुद्रा-कोष के वित्तीय साधनों का निर्माण समस्त सदस्य देशों के quotas से होता है। प्रारम्भ में कोष का सदस्य बनने हेतु किसी देश को अपने अभ्यंश का एक भाग स्वर्ण के रूप में तथा अन्य भाग अपनी मुद्रा में जमा करना पड़ता था। अब स्वर्णमान विशेष आहरण अधिकार (SDR) के रूप में जमा किया जा सकता है।
अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक आवश्यकताओं के अनुसार मुद्रा-कोष के साधनों को बढ़ाया जाता रहा है। 1959 में सदस्य देशों के अभ्यंशों को 50 प्रतिशत बढ़ाया गया, 1965 में अभ्यंशों को 25 प्रतिशत बढ़ाया गया। तत्पश्चात् 1970 में अभ्यंशों में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 1976 में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की पूँजी 33.6 प्रतिशत से बढ़ गई। 20 मार्च 1972 से कोष का एकाउन्ट SDR में व्यक्त होता है। पहले SDR की एक इकाई 0888371 ग्राम सोने के बराबर थी। जुलाई 1974 से SDR का मूल्य 16 देशों की मुद्राओं के औसत मूल्य के आधार पर निर्धारित होता है। सदस्य देशों की मुद्राओं का मूल्य SDR में प्रकट होता है। 1983 में कोष के कोटा बढ़कर पूँजी 98 हजार करोड़ हो गई।
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की सफलताएँ
मुद्रा कोष के संबंध में अध्ययन करने के पश्चात्य यह निष्कर्ष निकलता है कि मुद्रा कोष अपने कार्यालय के 30 वर्षों में world monetary balance की स्थापना करने में पर्याप्त सीमा तक सफल रहा है जैसा कि निम्न वर्णन से स्पष्ट है:
(1) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष अपने आन्तरिक संगठन तथा बाहरी प्रभाव के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग स्थापित करने में सफल रहा है।
(2) मुद्रा कोष द्वारा अपने प्रभाव के आधार पर अमरीका जैसे सम्पन्न राष्ट्र को यूरोपीय देशों की पुनर्निर्माण संबंधी समस्याओं के समाधान के संबंध में प्रेरित किया गया है।
(3) मुद्रा कोष ने विदेशी व्यापार पर लगे प्रतिबन्धों, foreign exchange control को कम . कराने तथा विदेशी भुगतान की बहुमुखी की स्थापना करने में सफलता प्राप्त की है। अब 35 देशों की मुद्राएँ स्वतन्त्र रूप में अन्य मुद्राओं में परिवर्तनीय हैं।
(4) मुद्रा कोष अन्तर्राष्ट्रीय तरलता को बढ़ाने में सफल हुआ है। उसने अपने स्थायी प्रसाधनों में पर्याप्त वृद्धि की है तथा विशेष आहरण अधिकार की व्यवस्था की है।
(5) मौद्रिक संकट के समय मुद्रा कोष द्वारा तकनीकी परामर्श दिया जाता है तथा आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है। सन् 1949 और 1958 के मध्य 30 देशों ने अपनी-अपनी मुद्राओं को अवमूल्यित किया। मुद्रा कोष ने इन मुद्रा के अवमूल्यनों को व्यवस्थित कराने में सफलता प्राप्त की है।
(6) मुद्रा कोष द्वारा विकासशील देशों की सहायता की गई है। कोष इन देशों को उसके भुगतान संतुलन तथा मौद्रिक स्थिरता के संबंध में सहायता प्रदान करता चला आया है। इन देशों के अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती रही है। विकासशील देशों की सहायता के लिए एक ट्रस्ट फण्ड (Trust Fund) भी बनाया गया है।
(7) मुद्रा कोष ने भुगतानों की सरल व्यवस्था करके अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि की है। वे देश जिनका व्यापार घाटे की स्थिति में होता है उनको मुद्रा कोष द्वारा सहायता दी जाती है। इससे विश्व के व्यापार में विगत वर्षों में लगभग 16 गुनी वृद्धि हुई है।
(8) मुद्रा कोष से भारत को समय-समय पर तकनीकी परामर्श का लाभ प्राप्त हुआ है। कोष ने भारत की आर्थिक नीति के निर्धारण में सहायता दी है। मुद्रा कोष के विशेषज्ञ समय-समय पर भारत आते रहे हैं।
(9) भारत के लिए कोष से 1974 में 642 मिलियन SDR के ऋण स्वीकृत हुए।
(10) भारत द्वारा 1975 में “तेल सुविधा” के संबंध में 203 मिलियन SDR की सहायता प्राप्त की गई।
(11) मुद्रा कोष की पूँजी में वृद्धि संबंधी निर्णय, जो जनवरी 1976 में लिया गया, के अनुसार भारत का अभ्यंश 940 मिलियन SDR के स्थान पर 1145 मिलियन SDR होगा। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की कुल पूँजी का यह 2.93 प्रतिशत होता है।
(12) मुद्रा कोष का सदस्य होने के कारण भारत को विश्व बैंक (World Bank) का सदस्य होने का अवसर प्राप्त हुआ है। विश्व बैंक से भारत लाभान्वित होता रहा है। वह विश्व बैंक की सहायता प्राप्त करके अपनी अर्थव्यवस्था का सुधार करता रहा है तथा अब आत्मनिर्भरता की ओर आगे बढ़ रहा है।
भारत को मुद्रा कोष से पर्याप्त मात्रा में सहायता प्राप्त होती रही है। इसकी वर्तमान आर्थिक प्रगति में मुद्रा कोष और विश्व बैंक की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
Frequently Asked Questions
उत्तर: SDR (Special Drawing Rights)
उत्तर: IMF (International Monetary Fund)
उत्तर: IMF and International Bank for Reconstruction and Development (IBRD)
उत्तर: Macroeconomic
उत्तर: सभी सदस्य देश
आज आपने क्या सीखा?
मुझे उम्मीद है कि आप कोई मेरी आर्टिकल अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष क्या हैं? (What is IMF in Hindi) जरूर पसंद आई होगी। मेरी हमेशा से यह कोशिश रहती है कि Readers को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की परिभाषा के विषय में पूरी जानकारी दी जाए। जिससे उन्हें किसी दूसरे Sites या इंटरनेट में उस Article के बारे में खोजने की जरूरत ना हो।
इससे आपके समय की बचत भी होगी और एक ही जगह पर सभी Information आपको मिल जाएंगे। यदि आपके मन में इस आर्टिकल को लेकर कोई Doubt है या आप चाहते हैं कि इसमें कुछ सुधार होना चाहिए तो आप हमें Comment करके बता सकते हैं।
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