क्या आप जानते हैं Inflation क्या है यानी कि मुद्रास्फीति क्या है? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो अक्सर कई लोगों को परेशान करते हैं और आज हम लोग इस Article में मुद्रास्फीति के बारे में जानेंगे उसके कारण और प्रभाव इससे किस प्रकार से हमारे Economy पर असर डालती है ।
तो आज हम लोग इस Article में जानेंगे कि Inflation क्या है? What is Inflation in Hindi? जिसका हमारे Economy में या फिर हमारे Financial Sector में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है । जिससे कि हमारे देश की Economy को ऊपर और नीचे ले जाया जा सकता है । Finance का नाम आने पर उसमें एक नाम Inflation का भी आता है जिस प्रकार से Reflation, Stagflation, और Recession आता है उसमे से एक नाम Inflation है जिसकी चर्चा विस्तृत रूप से आज हम लोग इस Article में करेंगे ।
मुद्रास्फीति क्या है – Inflation in Hindi
मुद्रास्फीति यानी महँगाई से तात्पर्य उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य में वृद्धि होना जब उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में स्थाई या अस्थाई वृद्धि हो तो उसे मुद्रास्फीति यह महँगाई कहा जाता है।
जो चलन की मात्रा (Volume of currency) में तीव्र वृद्धि के फलस्वरूप उत्पन्न होती है।
“मुद्रास्फीति वह स्थिति है जिसमें मुद्रा का मूल्य गिरता रहता है अर्थात् कीमतें बढ़ती रहती है।” “Inflation is a stage in which the value of money is falling that is prices are rising.” |
Inflation को अर्थशास्त्र की भाषा में मुद्रास्फीति के नाम से जाना जाता है लेकिन सरल शब्दों में इसका अर्थ महँगाई है ।
मुद्रास्फीति एक ऐसी अवस्था है जिसका प्रभाव संपूर्ण राष्ट्र पर पड़ता है। कोई भी क्षेत्र एवं वर्ग इसके प्रभाव से नहीं बच पाता है। धनी, ऋणी, विनियोगी, व्यापारी, वेतन-भोगी, भू स्वामी, सरकार, आयात कर्ता, निर्यात कर्ता, श्रमिक, उपभोगी आदि प्रत्येक वर्ग पर इसका प्रभाव पड़ता है। पर मुद्रास्फीति का प्रभाव संपूर्ण राष्ट्र पर एक समान नहीं पड़ता है।
मुद्रास्फीति की स्थिति में असामान्य संतुलन (disequilibrium) उत्पन्न हो जाता है जो सदैव मूल्य स्तर को बढ़ाने के लिए उत्तरदायी होता है। इस प्रकार मुद्रास्फीति की एक विशेष शर्त यह है कि मुद्रा की मात्रा (Bank Note, चलन या दोनों) अत्यधिक बढ़ जाएँ।
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मुद्रास्फीति के प्रकार (Types of Inflation)
मुद्रास्फीति के भिन्न-भिन्न रुपों का वर्णन निम्नलिखित है:
मात्रा या चलन के आधार पर
इस आधार पर मुद्रास्फीति के निम्न चार रुप होते हैं:-
- सरकने वाला मुद्रास्फीति (Creeping Inflation)
- टहलने वाला मुद्रास्फीति (Walking Inflation)
- दौड़ने वाला मुद्रास्फीति (Running Inflation)
- कूदने वाला या गम्भीरतम मुद्रास्फीति (Jumping or Galloping inflation)
Creeping Inflation (सरकने वाला मुद्रास्फीति): इस स्थिति में मुद्रास्फीति धीरे-धीरे बढ़ती है। कहने का अर्थ है 1 साल में लगभग 10 % तक बढ़ती है।
Galloping Inflation (कूदने वाला मुद्रास्फीति): इस स्थिति में मुद्रास्फीति तेजी से बढ़ती है यानी 1 साल में लगभग 20, 100, 200 % तक चले जाती है।
Walking Inflation (टहलने वाला मुद्रास्फीति): इस मुद्रास्फीति में मूल्यवृद्धि मध्यम (3% से 7%) हो जाती है और वार्षिक मुद्रास्फीति दर एक अंक की हो जाती हैं तो इससे Walking Inflation कहा जाता है। यह एक चेतावनी का संकेत है कि अब महंगाई बढ़ने वाली है अतः उसे नियंत्रित कर लिया जाए।
Running Inflation (दौड़ने वाला मुद्रास्फीति): यह मुद्रास्फीति एक निश्चित दर से बढ़ने लगती है तो उसे Running Inflation कहते हैं। यह मुख्यता 10 और 20 % के बीच में रहता है। इस दर पर मुद्रास्फीति अर्थव्यवस्था पर प्रभाव डालती है और आसानी से उच्च स्तर पर रहना शुरू कर देती है।
Hyper Inflation (अति मुद्रास्फीति): इसमें मुद्रास्फीति बहुत तेजी से बढ़ती है यह 1 साल में 30% से ज्यादा हो जाती है।
Stagflation (मंदी): इसमें मुद्रास्फीति की स्थिति ना तो बढ़ती है ना तो घटती है इसमें इसके बढ़ने की दर स्थिर रहती है।
Deflation (अपस्फीति): इसमें मुद्रास्फीति की दर सामान्य से कम हो जाती है या यह भी कह सकते हैं कि इस समय में पैसे का सही मूल्य पता चलता है।
- मूल्य में वृद्धि की चाल की दृष्टि से उक्त चारों एक दूसरे से भिन्न हैं। इनकी चाल इस दृष्टि से समान मानी जा सकती है कि इसका प्रभाव अर्थव्यवस्था पर अत्यन्त दूषित होता है।
- सरकने वाला मुद्रास्फीति, मुद्रास्फीति की सर्वप्रथम स्थिति होती है एवं कुछ अर्थशास्त्रियों के विचारानुसार यह अर्थ-व्यवस्था के लिए भयंकर सिद्ध नहीं होता है। वास्तव में कुछ अर्थशास्त्री इस प्रकार के मुद्रास्फीति का समर्थन भी करते हैं क्योंकि उनके विचारानुसार इस प्रकार के मुद्रास्फीति से अर्थव्यवस्था की स्थिरता (Stagnation) की स्थिति समाप्त करके मूल्यों में उचित वृद्धि कराना संभव हो जाता है।
- मुद्रास्फीति के इस रुप को खतरनाक मानते हैं। मुद्रास्फीति ऐसी गर्भाधान क्रिया है जो एक बार स्थापित होने पर तब तक बढ़ती रहती है जब तक कि बच्चे के जन्म के रुप में इसकी समाप्ति नहीं हो जाय। समय के साथ-साथ बालक सरकना छोड़ देता है क्रमशः, टहलने, दौड़ने एवं अन्त में कूदने लगता है।
- सरकने वाले मुद्रास्फीति पर प्रारम्भ में नियंत्रण कर लेना चाहिए एवं इसे विकसित होने का अवसर नहीं प्रदान करना चाहिए। सरकने वाले मुद्रास्फीति को, जिसके अन्तर्गत मूल्य दीर्घकाल में अत्यधिक अदृश्यता (imperceptibility) के साथ बढ़ते हैं, 1956 ई0 से जर्मनी एवं अमेरिका में बड़ा महत्व दिया जा रहा है।
- टहलने एवं दौड़ने वाले मुद्रास्फीति इससे भिन्न होते हैं क्योंकि इनके अन्तर्गत मूल्यों के बढ़ने की चाल सरकने वाले मुद्रास्फीति की अपेक्षा अधिक तेज होती है।
- सरकने वाले मुद्रास्फीति की तुलना में जब मूल्यों में वृद्धि अधिक निश्चित हो जाती है तब वह टहलने वाले मुद्रास्फीति की स्थिति होती है एवं यह स्थिति दौड़ने एवं कूदने वाले मुद्रास्फीति के आगमन की सूचक होती है जिसकी मात्रा को नापना अत्यन्त कठिन होता है। क्योंकि इन स्थितियों में कीमतें शीघ्रता से बढ़ती रहती है।
- कूदने वाले मुद्रास्फीति की स्थिति में कीमतें प्रतिक्षण बढ़ती हैं एवं कीमतों के बढ़ते जाने की कोई भी उच्चतम सीमा निश्चित नहीं होती है।
- सरकने वाले मुद्रास्फीति की स्थिति में मूल्यों में वृद्धि एक पीढ़ी (generation) के काल में होती है जबकि टहलने, दौड़ने एवं कुदने वाले मुद्रास्फीति की स्थिति में यह वृद्धि क्रमश: न्यूनतम समय जैसे 10, 5 एवं एक साल में ही होती है।
प्रक्रिया के आधार पर
इस आधार पर वर्णित मुद्रास्फीति के रुप को प्रोत्साहित हीनार्थ मुद्रास्फीति’ (deficit induced inflation) कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति का कारण यह है कि सरकार अपनी आय की अपेक्षा खर्च अधिक करना चाहती है। इस प्रकार मुद्रास्फीति के दो रुप हो सकते हैं, वेतन प्रोत्साहित मुद्रास्फीति एवं लाभ प्रोत्साहित मुद्रास्फीति।
वेतन प्रोत्साहित मुद्रास्फीति (Wage induced inflation) श्रमिकों की कार्य क्षमता में वृद्धि के कारण उनकी वेतनों में होनेवाली वृद्धि के फलस्वरूप उत्पन्न होता है जबकि लाभ प्रोत्साहित मुद्रास्फीति (Profit induced inflation) की उत्पत्ति का प्रधान कारण उत्पादकों के लाभों में वृद्धि से होता है!
समय के आधार पर
इस वर्गीकरण के अन्तर्गत मुद्रास्फीति के दो रुप हो सकते हैं। प्रथम, युद्धकालीन मुद्रास्फीति (War time inflation) जिसकी उत्पत्ति युद्ध के समय होती है। दूसरे, युद्धोत्तर कालीन मुद्रास्फीति (Post-war inflation) है जो युद्ध के तुरंत बाद के काल में उत्पन्न हुए। जर्मनी में होने वाला गम्भीरतम मुद्रास्फीति (Hyperinflation) युद्ध-कालीन एवं युद्धोत्तर-कालीन दोनों ही प्रकार के मुद्रास्फीति का सर्वोत्तम उदाहरण है।
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मुद्रास्फीति के कारण (Reason of Inflation)
मुद्रास्फीति के कारण को दो भागों में बाँट सकते है जो निम्नलिखित है:-
1. चलन की मात्रा में वृद्धि (Increase in the volume of currency): प्रत्येक कुछ देश में चलन की मात्रा देश में उपलब्ध वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य के बराबर या उससे अधिक रखी जाती है। अत: जब किन्हीं विशेष कारणों से चलन की यह मात्रा, वस्तुओं एवं सेवाओं की मात्रा की तुलना में दोगुनी, तिगुनी या और अधिक हो जाती है तो देश में मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। नीचे लिखे कारण इसी प्रकार के हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से वास्तविक एवं साख-मुद्रा की मात्रा में वृद्धि करके देश में चलन की मात्रा को बढ़ा लेते हैं। जिससे मुद्रास्फीति की स्थिति आ जाती है।
(i) मुद्रा-धातु की पूर्ति में वृद्धि (Increase in the supply of money metals): मुद्रा के धातुओं की पूर्ति बढ़ जाने पर मुद्रास्फीति उत्पन्न हो जाता है क्योंकि धातु की पूर्ति बढ़ने पर देश में मुद्रा की मात्रा सरलता से बढ़ा ली जाती है। यदि किसी देश में स्वर्ण या रजत-मान अपनाया जा रहा है और अचानक उस देश में स्वर्ण या रजत की नवीन खानों का पता लग जाता है तो स्वाभाविक रुप से इन खानों से प्राप्त सोने या चाँदी का प्रयोग देश में मुद्रा विस्तार में किया जायेगा और उस देश में मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जायगी।
(ii) मुद्रा एवं साख का ऐच्छिक विकास (Deliberate Expansion of money credit): विशिष्ट परिस्थितियों में सरकार स्वयं जानबूझकर चलन की मात्रा बढ़ा देती है जिसके फलस्वरुप मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। आवश्यकता होने पर चलन वृद्धि को सरकार अपनी नीति का एक अंग बना लेती है। सरकार किसी भी समय इस प्रकार की वृद्धि कर सकती है, पर साधारणतया वह ऐसा उस समय करती है जबकि, मुद्रा की क्रय शक्ति को घटाकर ऋणी वर्ग (Debitors) के ऋण-भार में कमी करना हो, युद्ध के कारण उसे अधिक मात्रा में धन की आवश्यकता हो आदि।
(iii) हीनार्थ प्रबन्ध (Deficit financing): सरकार की हीनार्थ प्रबन्ध नीति के फलस्वरुप भी चलन में मुद्रा की मात्रा बढ़ जाती है जिससे मुद्रास्फीति को प्रोत्साहन मिलता है। हीनार्थ प्रबन्ध की नीति सरकार उस समय अपनाती है जब उसकी आय, व्यय से कम हो। व्यय की अतिरिक्त रकम की पूर्ति के लिए सरकार या तो प्रत्यक्ष रुप से मुद्रा की मात्रा बढ़ा सकती है या फिर प्रतिभूतियों के आधार पर बैंकों से ऋण ले सकती है एवं बैंक इन प्रतिभूतियों के आधार पर साख एवं मुद्रा की मात्रा बढ़ा सकते हैं।
(iv) बैंक जमाओं के वेग में वृद्धि (Increase in the velocity of bank deposits): वर्तमान समय में मुद्रास्फीति की स्थिति के लिए यही कारण प्रथम स्थान प्राप्त करता जा रहा है। बैंक जमाओं के वेग में वृद्धि हो जाने के कारण चलन में मुद्रा की मात्रा काफी बढ़ जाती है जिसके फलस्वरुप कीमतों में वृद्धि होने लगती है। कीमतों में वृद्धि मुद्रास्फीति को उत्पन्न कर देती है। बैंक जमाओं का यह विकास boom-period में अत्यधिक बढ़ जाता है।
2. उत्पादन में कमी (Decrease in production): जिस प्रकार चलन को बढ़ने पर मुद्रास्फीति उत्पन्न हो जाता है उसी प्रकार यदि चलन की मात्रा यथा स्थिर रहने पर देश में उत्पादन की मात्रा एकदम घट जाय तब भी मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जायगी। इसके अतिरिक्त अन्य कारणों से भी उत्पादन में कमी हो सकती है
(i) उत्पादन साधनों की दुर्लभता (Scarcity of the factors of production): देश में श्रम, पूँजी, भूमि, साहस की दुर्लभता होने पर उत्पादन की मात्रा नहीं बढ़ाई जा सकेगी क्योंकि इस स्थिति में उत्पादन उत्पत्ति ह्रास नियम (law of diminishing return) के अन्तर्गत होता है।
(ii) औद्योगिक अशांति (Industrial unrest): यदि देश में शांति नहीं रहती है एवं श्रमिक संघर्ष निरंतर होते रहते हैं तब भी उत्पादन में कमी हो जाती है।
मुद्रास्फीति के आर्थिक प्रभाव क्या होते है? What is the effect of Inflation?
मुद्रास्फीति के विभिन्न प्रभावों (आर्थिक प्रभावों) का अध्ययन विभिन्न उप-विभागों के अन्तर्गत निम्नलिखित है
(a) मानव समुदाय पर प्रभाव (Effects on Human Beings)
मुद्रास्फीति का संपूर्ण मानव समाज पर समान प्रभाव न पड़कर विभिन्न वर्गो पर विभिन्न प्रभाव पड़ता है। मानव समुदाय पर मुद्रास्फीति के प्रभाव को स्पष्ट करने के लिए लार्ड कीन्स ने मानव समुदाय को पाँच वर्गों में बाँटा है। इन्हीं पाँच वर्गो के आधार पर हम मुद्रास्फीति के प्रभाव का अध्ययन करेंगे
1. विनियोगी (Investors): इस वर्ग में वे समस्त व्यक्ति शामिल होते हैं जो विभिन्न व्यापारों एवं उद्योगों में अपनी पूँजी लगाकर लाभांश के रुप में आय प्राप्त करते हैं, इस वर्ग के दो उप-विभाग हैं। प्रथम वह विनियोगी जो निश्चित आय प्राप्त करते हैं, दूसरे वह विनियोगी जिनकी आय परिवर्तनशील है। प्रथम वर्ग के विनियोगी को मुद्रास्फीति से हानि होती है क्योंकि इनकी आय तो स्थिर रहती है परन्तु मुद्रा की क्रय शक्ति में कमी हो जाने से उस आय की वास्तविक कीमत कम हो जाती है। इसके विपरीत परिवर्तनशील विनियोगी को मुद्रास्फीति से लाभ होता है जिसका कारण यह है कि मूल्य वृद्धि से उद्योगों को अधिक लाभ होता है। अधिक लाभ होने पर इन विनियोगों की आय भी बढ़ जाती है।
2. उत्पादक एवं व्यापारी वर्ग (Producers and Businessmen)
इस वर्ग के अन्तर्गत हम निम्न प्रकार के लोगों को शामिल कर सकते हैं
(i) साहसी एवं व्यापारी (Entrepreneurs): साहसी निर्माता, थोक विक्रेता एवं फुटकर विक्रेता सभी को मुद्रास्फीति काल में भारी लाभ होता है। इनके लाभ के कई कारण हैं। सर्वप्रथम, ये सभी व्यक्ति उधार लेकर व्यापार करने के कारण ऋणी श्रेणी में आते हैं एवं मूल्य वृद्धि की स्थिति में ऋणी को सदैव लाभ होता है। दूसरे माँगे अधिक हो जाने से वे उत्पादन एवं व्यापार बड़े पैमाने पर करते हैं जिससे उत्पादन लागत एवं व्यापार लागत कम हो जाती है। तीसरे, इनके द्वारा भुगतान की जाने वाली मजदूरी की धनराशि में कीमतों के समान वृद्धि नहीं हो पाती है। संक्षेप में इस श्रेणी के व्यक्ति मुद्रास्फीति से लाभान्वित होते हैं।
(ii) आयात-कर्ता एवं निर्यात कर्ता (Importers and Exporters): मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाने पर देश की मुद्रा का मूल्य कम हो जाता है। जिसके परिणामस्वरूप आयात के लिए आयात-कर्ताओं को अधिक मुद्रा देनी पड़ती है जबकि निर्यात-कर्ता विदेशों को अधिक निर्यात करके लाभ कमाते हैं। निर्यात-कर्ताओं के लाभ में वृद्धि का कारण यह है कि देश में कच्चे माल एवं मजदूरी मे तो मूल्य वृद्धि के अनुपात में वृद्धि नहीं होती है और उन्हें वस्तुओं के निर्यात पर पूर्व दर से ही विदेशी मुद्रा प्राप्त होती रहती है
जिसका विदेशी मुद्रा का ( मूल्य (देश की मुद्रा के मूल्य में कमी होने से) पूर्व की अपेक्षा बढ़ जाता है। इस प्रकार निर्यात कर्ता श्रमिकों एवं उत्पादकों के लाभ को हजम कर जाते हैं। निर्यात-कर्ताओं का यह लाभ उस समय समाप्त हो जाता है जब देश में कच्चे माल के मूल्य में एवं श्रमिक की मजदूरियों में वृद्धि हो जाती है।
(iii) कृषक एवं भू-स्वामी (Agriculturists and Landlords): मुद्रास्फीति की स्थिति में कृषक वर्ग को लाभ होता है क्योंकि उसकी स्थिति ऋणी एवं उत्पादक जैसी होती है। पर इसके विपरीत भूस्वामी को हानि होती है क्योंकि उसका लगान निश्चित होता है। किंतु यह हानि अल्पकालीन होती है क्योंकि भू-स्वामी सर्वशक्ति-सम्पन्न होने के कारण शीघ्र ही लगान बढ़ाने में सफल हो जाते हैं।
3. श्रमिक एवं वेतनभोगी वर्ग (Wage earners and salaried persons): इस वर्ग में हम उन समस्त व्यक्तियों को शामिल करते हैं जो दैनिक मजदूरी या मासिक वेतन के आधार पर अपने परिवार की जीविका प्राप्त करते हैं। अत: इस वर्ग के अन्तर्गत सभी प्रकार के वेतन भोगी कर्मचारी (सामान्यतः मध्यम वर्ग) एवं कारखानों, कृषि एवं अन्यान्य कार्यो में लगे श्रमिक (निम्न वर्गीय) शामिल होते हैं। इस संपूर्ण वर्ग को मुद्रास्फीति काल में भारी संकटों का सामना करना पड़ता है क्योंकि इस वर्ग की मजदूरियों एवं वेतनों में मूल्य वृद्धि के अनुपात में वृद्धि नहीं हो पाती है। वेतन एवं मजदूरियों में वृद्धि न होने के कारण इस वर्ग की क्रय शक्ति बहुत कम हो जाती है। फलत: इनके परिवार का भरण-पोषण भी ठीक प्रकार से नहीं हो पाता।
मध्यमवर्ग, जो वर्तमान प्रजातंत्र की रीढ़ की हड्डी के समान है, यही मुद्रास्फीति का बुरी तरह शिकार होता है। मुद्रास्फीति प्रारम्भ से ही इस वर्ग की स्थिति को चौपट करने लगता है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी, ऑस्ट्रिया, पोलैंड एवं फ्रांस के मध्यमवर्गीय परिवार इन देशों में फैले गम्भीरतम (hyper) मुद्रास्फीति के कारण पूर्णरुप से बर्बाद हो गये। इस समय इन दोनों के प्रतिष्ठित मध्यवर्गीय परिवार भी पूर्णतया नष्ट हो गये क्योंकि मुद्रास्फीति के कारण इन परिवारों की समस्त बचत एवं विनियोग शक्ति शून्य में बदल गयी।
4. उपभोक्ता वर्ग (Consumers): समाज के सभी सदस्य उपभोक्ता होते हैं एवं उपभोक्ता के रुप में संपूर्ण मानव समाज के लिए मुद्रास्फीति हानिप्रद होता है। इसका एकमात्र कारण यह है कि इनकी आय तो समान रहती है या जरा-सी बढ़ जाती है पर मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। फलस्वरुप वह अपनी आय से पूर्व की अपेक्षा कम वस्तुएँ खरीद पाते हैं। मुद्रा की क्रय शक्ति कम हो जाने के कारण उन्हें अपने उपभोग की मात्रा में कमी करनी पड़ती है जिससे उन्हें स्वाभाविक कष्ट होता है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय एवं युद्ध समाप्ति के बाद के काल में मुद्रास्फीति के कारण उत्पन्न उपभोक्ताओं के कष्टों से सभी परिचित हैं। भारत में तो यह अभी तक विद्यमान है।
5. ऋणी एवं धनी वर्ग (Debitors and Creditors): मुद्रास्फीति की स्थिति में ऋणी वर्ग को लाभ होता है पर धनी वर्ग हानि में रहता है। मुद्रास्फीति के कारण मुद्रा का मूल्य कम हो जाता है अतः ऋण के बदले में पूर्व की अपेक्षा कम क्रय-शक्ति अदा करता है। फलस्वरुप वह मुद्रास्फीति से लाभान्वित होता है। परन्तु धनी को उसके द्वारा दिये गये ऋण के बदले में कम क्रय शक्ति प्राप्त होती है अत: वह हानि में रहता है।
(ब) सरकार एवं करदाताओं पर प्रभाव (Effects on Government and Taxpayers): मुद्रास्फीति का सरकार एवं करदाताओं पर भी प्रभाव पड़ता है। मुद्रास्फीति के कारण सरकार के खर्चे निरंतर बढ़ते जाते हैं जिसके कारण उस पर अतिरिक्त भार आ पड़ता है। इन ख़र्चों की पूर्ति के लिए सरकार को अतिरिक्त आय की आवश्यकता होती है। परन्तु जनता के रहन-सहन का व्यय बढ़ जाने के कारण एवं आय में वृद्धि होने के कारण करारोपण की वृद्धि का वह निरंतर विरोध करती है। बाध्य होकर सरकार को बढ़े हुए ख़र्चों की पूर्ति के लिए मुद्रास्फीति को बढ़ावा देना पड़ता है और वह अधिक निर्गमन द्वारा इन ख़र्चों की पूर्ति तब तक करती रहती है जब तक की स्थिति निकृष्टतम नहीं हो जाती।
इस प्रकार सरकार को भी मुद्रास्फीति की स्थिति से हानि ही होती है। पर इसके विपरीत कर-दाताओं को इस स्थिति से लाभ होता है। क्योंकि उन्हें कर के रुप में यद्यपि पूर्व से अधिक रकम देनी पड़ती है पर क्रयशक्ति की दृष्टि से यह रकम पूर्व की अपेक्षा बहुत कम होती है।
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मुद्रास्फीति को रोकने के क्या उपाय है?
मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न होने के दो प्रमुख कारण हैं। प्रथम, चलन में मुद्रा या साख की मात्रा बढ़ जाना दूसरे, वस्तुओं की मात्रा में कमी हो जाना। अत: मुद्रास्फीति को रोकने या नियंत्रित करने के लिए हमें या तो चलन से मुद्रा या साख की मात्रा को घटा देना चाहिए या वस्तुओं या सेवाओं की मात्रा में अत्यधिक वृद्धि कर देनी चाहिए। मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करने के इन दोनों उपायों का वर्णन निम्नलिखित है
(A) चलन में मुद्रा एवं साख की मात्रा को कम करना
चलन में मुद्रा एवं साख की मात्रा में कमी करने के लिए निम्न उपायों को प्रयुक्त किया जा सकता है
1. चलन का विस्तार बन्द करना: मुद्रा की मात्रा में कमी करने के लिए सर्वप्रथम देश की सरकार को चाहिए कि वह मुद्रा का आगामी विस्तार (Expansion) एवं निर्गमन बंद कर दे। मुद्रा की मात्रा में इस प्रकार वृद्धि न होने पर मूल्यों में होने वाली वृद्धि भी रुक जायेगी। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सर्वोत्तम उपाय यही है कि देश में नवीन मुद्रा पद्धति का प्रचलन किया जाय एवं पुराने चलन को नवीन चलन की कम मात्रा में परिवर्तनशील रखा जाय। युद्ध के बाद रुस ने मुद्रास्फीति रोकने के लिए इसी नीति का पालन किया था।
2. अनिवार्य बचत योजना: चलन की वर्तमान मात्रा में कमी करने के लिए सरकार द्वारा कानून पास करके अनिवार्य बचत योजना (Compulsory saving scheme) चालू करनी चाहिए। इस योजना के प्रचलित हो जाने पर हर व्यक्ति को निश्चित रुप से कुछ न कुछ बचत प्रतिमाह करनी होगी। बचत की यह धनराशि उसे कुछ निश्चित समय बाद ही उपलब्ध होगी। इस प्रकार इस बचत योजना से वर्तमान चलन की एक निश्चित मात्रा का प्रयोग उपभोग के लिए नहीं किया जा सकेगा। चलन में मुद्रा कम रहेगी। अत: मूल्य कम होने लगेंगे।
3. नवीन वित्तीय नीति: मुद्रा व साख की मात्रा में और कमी करने के लिए सरकार को अपनी पुरानी वित्तीय नीति का त्याग कर नवीन वित्तीय नीति अपनानी चाहिए। इस नवीन नीति के अन्तर्गत उसे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों की दरों में वृद्धि कर देनी चाहिए, अपने बजट हीनार्थ न बनाकर संतुलित बनाना चाहिए एवं जनता से आकर्षक उपायों द्वारा अधिक ऋण लेना चाहिए। इस प्रकार कार्य किये जाने पर जनता के पास क्रयशक्ति कम होती जायेगी एवं तब वह अधिक दाम में माँग न करेंगी, फलत: मूल्यों में गिरावट आएगी।
4.नवीन मौद्रिक नीति: नवीन वित्तीय नीति के साथ ही साथ सरकार को अपनी मौद्रिक नीति भी परिवर्तित कर देनी चाहिए। इस नीति के अन्तर्गत सरकार को बैंक दर में वृद्धि कर देनी चाहिए। बैंक दर में वृद्धि होने पर व्यक्तिगत खर्यो एवं व्यक्तिगत विनियोगों में कमी आयेगी क्योंकि तब अधिक ब्याज के लालच में व्यक्ति अपना धन इधर-उधर विनियोग न करके बैंक में जमा करेंगे। वित्तीय नीति के फलस्वरुप बैंकों के साख निर्गमन पर पूर्व से ही कुछ विशिष्ट प्रतिबंध लग जायेंगे। अत: इस समय मौद्रिक नीति का दोहरा प्रभाव होगा एवं चलन में मुद्रा की मात्रा कम होती जायेगी।
(B) वस्तुओं की मात्रा में वृद्धि करना
चलन की मात्रा को कम करने के साथ ही साथ देश में वस्तुओं एवं सेवाओं की मात्रा में वृद्धि कर दी जाय तो मुद्रास्फीति पर शीघ्र नियंत्रण हो जाता है। मुद्रास्फीति उत्पन्न हो जाने पर देश की वस्तुओं की मात्रा बढ़ाने के लिए निम्न उपाय प्रयुक्त किये जा सकते हैं
1. नवीन प्रशुल्क नीति: सरकार को अपनी प्रशुल्क नीति में इस प्रकार परिवर्तन करना चाहिए जिससे कि आयातों को प्रोत्साहन मिले एवं निर्यात हतोत्साहित हो। आयात अधिक होने एवं निर्यात कम होने पर देश में स्वाभाविक रुप से वस्तुओं की मात्रा बढ़ेगी।
2. औद्योगिक विकास: देश में उद्योगों का अधिकतम विकास किया जाना चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए नवीन उद्योग स्थापित किये जाने चाहिए, पुराने उद्योगों का उत्पादन बढ़ाया जाना चाहिए। कुटीर उद्योगों के विकास को विशेष महत्व देना चाहिए।
3. सरकारी उत्पादन: आवश्यक होने पर कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में सरकार को स्वयं भी उत्पादन शुरु कर देना चाहिए।
(C) मूल्य नियंत्रण एवं राशनिंग
मुद्रा की मात्रा कम करने एवं उत्पादन बढ़ाने के अलावा कुछ व्यक्तियों का विचार है कि मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करने के लिए मूल्य नियंत्रण एवं राशनिंग प्रथा (Price control and Rationing) शुरु की जानी चाहिए। वास्तव में इस उपाय द्वारा मुद्रास्फीति को समाप्त नहीं किया जा सकता है कुछ समय के लिए मूल्यों पर नियंत्रण अवश्य लगाया जा सकता है। अतः उचित यही है कि मुद्रास्फीति जैसी सामाजिक बुराई (Social evil) को समूल नष्ट करने के लिए A एवं B दोनों ही उपायों को एक साथ लागू कर देना चाहिए।
मुद्रास्फीति के नियंत्रण उपाय क्या है?
मुद्रास्फीति को रोकने के लिए निम्न तीन प्रकार के उपायों का सहारा लिया जा सकता है:-
(I) मौद्रिक उपाय,
(II) राजकोषीय उपाय,
(III) अन्य उपाय।
मौद्रिक उपाय (Monetary Measure)
(1) मुद्रा निकालने सम्बन्धी नियमों को कठोर बनाना: मुद्रास्फीति की मात्रा कम करने के लिए सरकार के लिए यह आवश्यक है कि मुद्रा निकालने सम्बन्धी नियमों को कड़ा करें ताकि केन्द्रीय बैंक को अतिरिक्त मुद्रा निकालने में अधिक कठिनाई हो। इसके लिए नोट के पीछे रखे जाने वाले स्वर्ण अथवा विदेशी-विनिमय के कोषों की मात्रा में वृद्धि कर दी जाती है और यदि पहले से कोई कोष नहीं रखे जा रहें हों तो कोष रखने की व्यवस्था आरम्भ की जाती है।
(2) पुरानी मुद्रा वापस लेकर नई मुद्रा देना: मुद्रास्फीति बहुत भयंकर होने की दशा में साधारण उपचार उपयोगी नहीं हो सकते। अत: पुरानी सब मुद्राएँ समाप्त कर उनके बदले में नयी मुद्राएँ दे दी जाती हैं। ऐसा करने में प्राय: पुरानी बहुत-सी मुद्राओं को एक नई मुद्रा परिवर्तित किया जाता है।
(3) साख-स्फीति को कम करना (Reducing credit inflation): मुद्रास्फीति को कम करने के लिए साख-स्फीति को कम करना आवश्यक है। इसके लिए केन्द्रीय बैंक द्वारा बैंक दर बढ़ाकर, प्रतिभूतियाँ बेचकर तथा बैंकों से अधिक कोष माँगकर, साख कम की जा सकता किया जाता है। केन्द्रीय बैंक को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। जिससे साख लेना अधिक महँगा हो जाय।
राजकोषीय उपाय (Fiscal Measures)
(1) बजट में सन्तुलन: सरकार को मुद्रास्फीति के समय घाटे के बजट की नीति नहीं मुद्रा का निर्गमन करना पड़ेगा जो मुद्रास्फ़ीति को अधिक भयावह बना देगा। अत: बजट को अपनानी चाहिए क्योंकि यदि बजट घाटे का है तो उसकी पूर्ति करने के लिए सरकार को अतिरिक्त संतुलित रखा जाना चाहिए।
(2) ऋण-प्राप्ति (Obtaining Loans): मुद्रास्फीति कम करने के लिए सरकार को ऋण-पत्र (debentures) बेचने चाहिए और जनता को यह पत्र खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इनामी बॉण्ड अथवा बचत-पत्र भी ऐसी राशियों में निर्गमित करने चाहिए। जिन्हें सब वर्गों के व्यक्ति खरीद सकें। यह ऋण-पत्र अधिकतर अल्पकालीन होने चाहिए ताकि जनता को उन्हें खरीदने में कोई संकोच न हो।
(3) सार्वजनिक व्यय पर नियंत्रण: मुद्रास्फीति के समय सरकार को अपने व्यय में कमी कर देनी चाहिए जिससे अतिरिक्त मुद्रा लोगों के हाथों में न पहुँच सकें। विशेष रूप से अनुत्पादक व्यय को तो रोक ही देना चाहिए, क्योंकि इससे उत्पादन में वृद्धि नहीं होती तथा कीमतें बढ़ने लगती हैं।
(4) बचतों को प्रोत्साहन: यदि जनता के पास उपलब्ध क्रय-शक्ति को लगातार व्यय किया जावे तो निश्चित ही कीमतें बढ़ने लगती हैं। अत: सरकार को बैंकों एवं डाकघरों के माध्यम से ऐसी नीतियाँ कार्यान्वित करनी चाहिए जिससे लोग बचत करने के लिए प्रोत्साहित हों। इसके लिए आकर्षक ब्याज की दर भी अपनानी चाहिए।
(5) मजदूरी बन्धन (Freezing of Wages): मुद्रास्फीति पर रोक लगाने के लिए प्राय: मजदूरी को बन्धित करने की नीति अपनाई जाती है जिसके अनुसार मज़दूर और मालिक मिलकर यह समझौता कर लेते हैं कि आगामी 5 या 10 वर्ष तक मजदूरी में कोई वृद्धि नहीं की जायगी। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् जर्मनी ने अपने आर्थिक विकास के लिए मजदूरी बंधन की नीति अपनाई।
(6) उत्पादन वृद्धि (Increasing Production): उत्पादन की मात्रा में वृद्धि से भी मुद्रास्फीति का प्रभाव कम हो जाता है, क्योंकि वस्तुओं की पूर्ति पहले से बढ़ जाती है। अतः सरकार द्वारा ऐसे उद्योगों के वास्ते लाइसेंस दिए जाने चाहिए जिनमें कम पूँजी लगानी पड़े और शीघ्र उत्पादन द्वारा उपभोक्ताओं की अधिक से अधिक आवश्यकताएं पूरी कर सकें।
(7) मूल्य-नियन्त्रण (Price Control): स्फीति कम करने के लिए वस्तु-मूल्यों पर भी कड़े नियंत्रण लगाने चाहिए और उपभोक्ताओं को कम माल खरीदने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
अन्य उपाय (Other Measures)
(1) मूल्य नियन्त्रण एवं राशन व्यवस्था लागू करना (Adoption of Price Control and Rationing): मुद्रास्फीति के कारण वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्यों में जो वृद्धि होती है उसका प्रभाव कम करने के लिए सरकार प्रायः मूल्य नियंत्रण तथा राशन व्यवस्था लागू करती है। इससे लोगों को कुछ वस्तुएँ सस्ती तो मिलती हैं, परन्तु उनकी मात्रा बहुत कम होती है।
(2) निश्चित आय वाले वर्ग को महँगाई-भत्ता देना (Provision of Dearness Allowance to fixed Income Class): मुद्रास्फीति का सबसे बुरा प्रभाव निश्चित आय वाले वर्ग पर पड़ता है, क्योंकि मूल्य बढ़ जाने से उनकी वास्तविक आय कम हो जाती है। इसकी पूर्ति करने के लिए इस वर्ग के लोगों को महँगाई-भत्ता देने की व्यवस्था की जाती है, परन्तु महँगाई-भत्ता केवल आंशिक सहायता होती है, क्योंकि यह मूल्य वृद्धि की तुलना में बहुत कम होता है।
(IV) मूल्यों में सहायता (Subsidy in Respect of Price): कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिन्हें विदेशों से आयात करना पड़ता है अथवा जिनके मूल्य अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों द्वारा निर्धारित होते हैं। कभी-कभी सरकार इनमें से कोई वस्तु (जैसे अनाज) जनता को सस्ते मूल्य पर देना चाहती है तो लागत-मूल्य और विक्रय-मूल्य में जो अंतर होता है वह घाटा स्वयं सरकार सहन कर लेती है। उदाहरणत: यदि बर्मा से आयात किए गए चावल का भाव 200 रुपए क्विन्टल हो और सरकार बंगाल की जनता को 180 रुपए क्विन्टल के भाव चावल देना चाहे तो वह 20 रुपए क्विन्टल का घाटा सहन कर लेती है।
मुद्रास्फीति के प्रभाव को कम करने के लिए किए गए यह सब यत्न केवल अल्पकालीन तथा अस्थाई सहायता मात्र हैं, मुद्रास्फीति के भीषण रोग का इलाज नहीं।
Frequently Asked Questions
उत्तर: मुद्रा की कीमत घट जाती है
उत्तर: व्यापारी वर्ग को
उत्तर: प्रोफेसर ब्रह्मानंद और वकील ने
उत्तर: WPI
उत्तर: अक्टूबर 1974 में (34.7%)
उत्तर: मई 1976 में (- 11.3%)
उत्तर: Labour Department’s Bureau of Labour Statistics
उत्तर: CSO (Central Statistics Office)
Conclusion
उपयुक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि विकासशील तथा नियोजित अर्थव्यवस्था के प्रारंभिक युग में मुद्रास्फीति की हल्की मात्रा लाभ पहुंचाने वाली होती है, क्योंकि वह उत्पादन, रोज़गार, आय तथा सरकारी विकास योजनाओं को गतिशीलता प्रदान करती है, किंतु मुद्रास्फीति का प्रयोग दवा की भाँति ही करना उचित है। जब वह भोजन की भाँति प्रयुक्त होना आरम्भ हो जाता है तभी सामाजिक एवं आर्थिक दोष उत्पन्न होने आरम्भ हो जाते हैं। मुद्रास्फीति को अफीम की भाँति समझा जाना चाहिए जिसका प्रयोग औषधि के रुप में किया जाय तो लाभदायक होता है, किंतु आदत पड़ने पर वह कार्य क्षमता एवं शरीर का विनाश कर देती है।
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